अस्वस्थ शरीर यह / रवीन्द्रनाथ ठाकुर
अस्वस्थ शरीर यह
कौन सी अवरुद्व भाषा कर रहा वहन?
वाणी क्षीणता
मुह्यमान आलोक में रच रही अस्पष्ट की कारा क्या?
निर्झर जब दौड़ता है परिपूर्ण वेग से
बहुत दूर दुर्गम को करने जय-
गर्जन उसका तब
अस्वीकार करता ही चलता है गुफा के संकीर्ण नाते को,
घोषित करता ही रहता है निखिल विश्व का अधिकार।
बल-हीन धारा उसकी होती है मन्द जब
वैशाख की शीर्ण शुष्कता से-
खोता तब अपनी वह मन्द्रध्वनि,
कृशतम होता ही रहता है अपने में
अपना ही परिचय।
खण्ड-खण्ड कुण्ड़ों में
क्लान्त-श्रान्त गति स्त्रोत उसका विलीन हो जाता है।
वैसे ही मेरी यह रूग्न वाणी
आज खो बैठी है स्पर्धा अपनी,
नही है शक्ति उसमें जीवन की संचित ग्लानि को
धिक्कार देने की।
आत्मगत क्लिष्ट जीवन की कुहेलिका
विश्व की दृष्टि उसकी कर रही हरण है।
हे प्रभात सूर्य,
अपना शुभ्रतम रूप में
देखूंगा तुम्हारी ज्योति केन्द्र में उज्जवलतर,
मेरे प्रभात-ध्यान को अपनी उस शक्ति से
कर दो आलोकित,
दुर्बल प्राणो का दैन्य
अपने हिरण्मय ऐश्वर्य से
कर दो दूर,
पराभूत रजनी के अपमान-सहित।