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अवसन्न आलोक की / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

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अवसन्न आलोक की
शरत की सायाह्न प्रतिमा-
असंख्य नक्षत्रों की शान्त नीरवता
स्तब्ध है अपने हृदय गगन में,
प्रति क्षण में है निश्वसित निःशब्द शुश्रूषा।
अन्धकार गुफा से निकलकर
जागरण पथ पर
हताश्वास रजनी के मन्थर प्रहर सब
प्रभात शुक्र-तारा की ओर बढ़ते ही जाते हैं
पूजा के सुगन्धमय पवन का
हिम-स्पर्श लेकर।
सायाहृ की म्लानदीप्ति
करुणच्छविने
धारण किया है कल्याण-रूप
आज प्रभात की अरूण किरण में;
देखा, मानो वह धीरे-धीरे आ रही है
आशीर्वाद लिये
शेफाली कुसुम रुचि प्रकाश के थाल में।