भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दिन के मध्याह्न में / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:09, 18 नवम्बर 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रवीन्द्रनाथ ठाकुर |अनुवादक=धन्य...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दिन के मध्याह्न में
आधी-आधी नींद और आधा-आधा जागरण
सम्भव है सपने में देखा था -
मेरी सत्ता का आवरण
केंचुली सा उतरा और जा पड़ा
अज्ञात नदी-स्रोत में
साथ लिये मेरा नाम, मेरी ख्याति,
कृपण का संचय जो कुछ भी था,
कलंक्की लिये स्मृति
मधुर क्षणों के ले हस्ताक्षर;
गौरव और अगौरव
लहरों लहरों मंें वहजाता सब,
उसे न वापस ला सकता अब;
मन ही मन करता तर्क-
मैं हूं ‘मैं शून्य’ क्या?
जो कुछ भी खोया मेरा, उसमें
सर्वाधिक वेदना की चोट लगी किसके लिए ?
अतीत नहीं मेरा वह
सुख-दुःख में जिसके साथ
काटे दिन काटीं रात।
मेरा वह भविष्य है
जिसे मैंने पाया नहीं कभी किसी काल में,
जिसमें मेरी आकांक्षा में
वैसे ही जैसे बीज भूमि गर्भ में
अंकुरित आशा लिये
अनागत आलोक की प्रतीक्षा में
देखा था दीर्घ स्वप्न दीर्घ विस्तृत रात में।

‘उदयन’
अपराह्न: 24 नवम्बर