Last modified on 18 नवम्बर 2014, at 23:17

एक दिन रूपनरान नदी के तीर / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:17, 18 नवम्बर 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रवीन्द्रनाथ ठाकुर |अनुवादक=धन्य...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

एक दिन रूपनरान नदी के तीर
जाग उठा, जान गया
यह जगत स्वप्न नही।
रक्ताक्षरों में देखा
अपना रूप,
पहचान गया अपने को
आघात आघात में, वेदना-वेदना में;
सत्य जो कठोर है,
कठोर को किया प्यार,
कभी किसी से वह करता नहीं वंचना।
आमृत्यु दुःख ही की तपस्या है यह जीवन,
सत्य का कठोर मूल्य पाने को
मृत्यु समस्त ऋण चुकाने को।

‘उदयन’
शेषरात्रि: 13 मई, 1941