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एक दिन रूपनरान नदी के तीर / रवीन्द्रनाथ ठाकुर
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एक दिन रूपनरान नदी के तीर
जाग उठा, जान गया
यह जगत स्वप्न नही।
रक्ताक्षरों में देखा
अपना रूप,
पहचान गया अपने को
आघात आघात में, वेदना-वेदना में;
सत्य जो कठोर है,
कठोर को किया प्यार,
कभी किसी से वह करता नहीं वंचना।
आमृत्यु दुःख ही की तपस्या है यह जीवन,
सत्य का कठोर मूल्य पाने को
मृत्यु समस्त ऋण चुकाने को।
‘उदयन’
शेषरात्रि: 13 मई, 1941