ख्याति निन्दा पार हो आया हूं जीवन के प्रदोष में,
विदा के घाट पर बैठा हूं।
अपनी इस देह पर
असंशय किया था विश्वास मैंने,
जरा का मौका पा आज वह
कर रही अपना ही परिहास है,
सभी कामों में देखता हूं अब तो वह
बार-बार घटााती है विपर्यय
मेरे कर्तव्य को करती रहती है सदा क्षय।
उस अपमान से बचाने को मुझे
जो विश्राम दे रहे पहरा यहाँ,
आस-पास खड़े हैं जो दिनान्त का शेष आयोजन ले,
बताऊँ या न बताऊँ नाम उनका,
मन में है स्थान उनका, -याद रहेंगे वे।
दिया है उन्होंने सौभाग्य का परिचय शेष
भुलाये रखा है मुझे दुर्बल प्राण के पराजय से;
स्वीकार वे करते हैं इस बात को
ख्याति प्रतिष्ठा तो सुयोग्य समर्थों के लिए है,
वे ही कर रहे प्रमाणित हैं
अक्षम के भाग्य में है जीवन का श्रेष्ठ दान।
जीवन भर खयति का खजाना देना पड़ता है,
माफी नहीं, छूट नहीं, नहीं फारखती है,
अपचय का लेश नहीं उसकी जमींदारी में;
समस्त मूल्य समाप्त हो जाने पर
जो दैन्य लाता है अर्ध्य प्रेम का
असीम के स्वाक्षर तो वहीं हैं।
‘उदयन’
प्रभात: 9 जनवरी, 1941