भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आज जन्मवासर का विदीर्ण कर वक्षस्थल / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:58, 19 नवम्बर 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रवीन्द्रनाथ ठाकुर |अनुवादक=धन्य...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आज जन्मवासर का विदीर्ण कर वक्षस्थल
प्रिय मरण विच्छेद का आया है दुःसंवाद;
अपनी ही आग में शौक के दग्ध किया अपने को,
उठा उद्दीप्त हो।
सायाह्न बेला के भाल पर अस्त सूर्य
रक्तोज्ज्वल महिमा का करता जैसे तिलक है,
स्वर्णमयी करता है जैसे वह
आसन्न रात्रि की मुखश्री को,
वैसे ही जलती हुई शिखा ने
‘प्रिय मृत्यु का तिलक कर दिया मेरे भाल पर
जीवन के पश्चिम सीमान्त में।

आलोक में दिखाई दिया उसका अखण्ड जीवन
जिसमें जनम मृत्यु गुँथे एकसूत्र में;
उस महिमा ने उद्वार किया उस उज्जवल अमरता का
कृपण भाग्य के दैन्यन अब तक जिसे ढक रखा था।

मंपू: दार्जिलिंग
वैशाख 1997