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पुरातन काल का इतिहास जब / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

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पुरातन काल का इतिहास जब
संवाद न था मुखरित तब
उस निस्तब्ध ख्याति के युग में-
आज के समान ऐसे ही प्राण यात्रा कल्लोलित प्रात मंे
जिन्होने की है यात्रा
मरण शंकिल मार्ग से
आत्मा अमृत अन्न करने को दान
दूर वासी अनात्मीय जनों को,
संघबद्ध हो चले थे जो
पहुंचे नहीं लक्ष्य तक,
तृषा तप्त महा बालु का में अस्थ्यिाँ छोड़ गये
समुद्र ने जिनके चिह्न को मिटा दिया,
अनारब्ध कर्म पथ में
अकृतार्थ नहीं हुए वे-
घुल-मिल गये है उस देहातीत महाप्राण में,
शक्ति दी है जिसने अगोचर में चिर मानव को
उनकी करूणा का स्पर्श पा रहा हूं आज
इस प्रभात प्रकाश में,
उनको मेरा नमस्कार है।

‘उदयन’: शान्ति निकेतन
प्रभात: 12 दिसम्बर, 1940