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कोउ मोहिं पिय की गैल बतावै / स्वामी सनातनदेव

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राग चन्द्रकोश, तीन ताल 22.6.1974

कोउ मोहि पियकी गैल बतावै।
भटकि-भटकि हारी मैं मनमें, सूधो पंथ न पावै॥
पियसों बिछुरि बहुत दुख पायो, अब मन अति अकुलावै।
खोजि-खोजि हारी मैं जहँ-तहँ, तदपि न पिय नियरावै॥1॥
अब यह विरह न सहन होत है, पियकी सुरति सतावै।
है ऐसो उदार कोउ जगमें, पियसांे मोहिं मिलावै॥2॥
तन मन धन वाहीकांे सौपों, जो मोहि गैल बतावै।
प्राननाथ ही सरबस मेरो, वह पाये सब पावै॥3॥
लेहु लेहु रे सभी बटोही! जो-जो तुम को भावै।
मोहिं मिलावहु मनमोहन सों, और न मोहिं सुहावै॥4॥

शब्दार्थ
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