सखि! मोहिं स्यामहि की सुधि आवै / स्वामी सनातनदेव
राग ईमन, ताल चौताल 18.8.1974
सखि! मोहिं स्यामहि की सुधि आवै।
वह चितवन वह मुसकन सजनी! पलहुँ न चितसांे इत-उत जावै॥
चढ़ी रहत चितपै वह मूरति, निरखनकों मन अति अकुलावै।
छिन-छिन बढ़त प्यास नयनन की, कहा कहां कछु समुझि न आवै॥1॥
बड़े भाग्य पाये नँदनन्दन, कैसे उनहिं हियो विसरावै।
सह न सक्यौ बिधना सो सुख हा! हमहिं दुःख दे का सुख पावै॥2॥
अब तो सुपन भई वे बतियाँ, छतियन विरह-अनल सुलगावै।
यासों पाप-ताप बरि-जरि का कबहुँ बहुरि सो सुभ दिन आवै॥3॥
व्रज की व्यथा जानि जब हरि कों फिर हूँ दया-मया कछु आवै।
तिनको दरस पाय फिर व्रज की विरह-व्याधि छिन माहिं नसाबै॥4॥
आओ, आओ प्रान हमारे! तुम बिनु जीवन जीय जरावै।
प्रान बिना तनु व्याकुल है तो तनु बिनु प्रानहुँ का सुख पावै॥5॥
तनु अरु प्रान होहिं इक थल तो दोउसों दोउ में रस सरसावे।
ऐसे निरस भये क्यों रस-धन! जो यह रस अब तुमहिं न भावै॥6॥