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प्रीति अरु प्रीतम एकहि रूप / स्वामी सनातनदेव

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राग कामोद, धमार 1.9.1974

प्रीति अरु प्रीतम एकहि रूप।
आनँद के अम्बुधि<ref>समुद्र</ref> हैं प्रीतम, प्रीति तिनहि को ऊर्मि<ref>तरंग</ref> अनूप॥
प्रीतम प्राननाथ मनमोहन, प्रीति प्रियाजू रति-रस रूप।
प्रीतम की आह्लादिनि प्यारी, प्यारी के प्रिय प्रान-स्वरूप॥1॥
रस-तरुवर के सुरभि<ref>सुगन्धित</ref> सुमन दोउ, दोउ को दोउ में भाव अनूप।
दोउ प्रीतम दोउ प्रेमी, दोउ जनु एक प्रीति-रसके द्वै पूप<ref>पूआ</ref>॥2॥
दोउ में एक, एक में द्वै, यह रति-रसकी कोउ केलि सरूप<ref>मूर्तिमान</ref>।
या रस के जे रसिक छकहिं ते अलिवत् चिद्रस स्वयं-स्वरूप॥3॥
कहा कहै उनकी कोउ महिमा, ते सके जनु जलद अनूप।
तिन के कन-कन सों जन-जन में उमँगत रस की तृषा अरूप॥4॥
यही प्रीति की रीति अनूठी, यही सकल साधन की भूप।
या रति रस के अवगाहनसों प्रेमी होहिं प्रीति-प्रतिरूप॥5॥

शब्दार्थ
<references/>