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बरसत नेह-नीर नित नेरो / स्वामी सनातनदेव
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राग मलार, तीन ताल 27.6.1974
बरसत नेह-नीर नित नेरो।
तृषावन्त हूँ पियत न पामर विषय-जालसों घेरो॥
जल में रहत तदपि प्यासो ही, काल करम को प्रेरो।
जासों सदा तृषा ही बाढ़ै ताके पर्यो पिछेरो॥1॥
जनम-जनम भोगहि नित भोगे, तदपि न भयो निवेरो।
मरु-जल सरिस विषय-रस सेवत, को सचुपात सबेरो॥2॥
निज छायाकों गहन चहत सठ, पै रविसों मुख फेरो।
जुग-जुग धाय चलै, पै पावै परस न छाया केरो॥3॥
पै जो तासों पीठ फेरि धावहि दिनकर के नेरो।
तो छाया पाछे ही धावत-यही न्याय इत हेरो॥4॥
हरि तजि-पचि-पचि हूँ पावै कोउ पार न माया केरो।
पै सब तजि जो भजहि स्यामकों, माया करै पिछेरो॥5॥
यासों सब तजि होउ स्याम के, सो रसनिधि रसिकेरो।
रस ही रस सरसै जीवन में, रहै न कोउ बखेरो॥6॥