राग मालकोश, तीन ताल 19.6.1974
सखी! ये नयना भये चकोर।
मुख-मयंक जबसों वह निरख्यौ तकहिं न दूजी ओर॥
वह मधुमयि मुसकनि मोहन की, वह चितवनि चितचोर।
वह उदार मनुहार छाँड़ि अब जायँ नयन का ओर॥1॥
निरखि-निरखि वह छवि मनहरनी मनुआँ लेत अँकोर<ref>आलिंगन</ref>।
तजन न चहत काहु विधि सजनी! होत हिलग बरजोर॥2॥
वह मूरति निरखे जबसों सखि! हिय में उठत हिलोर।
नयनन ही में ताहि बसावहुँ बाँधि नेह की डोर॥3॥
पल-पल पलक-परत जो सजनी! लागहिं कलप करोर।
जान परत यह छबि न देखि विधि रचे पलक बरजोर॥4॥
पलक काटि अब लखहुँ लालकों, हिय अस होत मरोर।
अथवा होउ लाल की लाली, रहे न फिर कोउ कोर<ref>कसर</ref>॥5॥
शब्दार्थ
<references/>