भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दरस बिनु रहहिं दुखारी नैन / स्वामी सनातनदेव

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:07, 25 नवम्बर 2014 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

राग सोहनी, तीन ताल 29.7.1974

दरस बिनु रहहिं दुखारी नैन।
पल-पल ललकत रहहिं प्रानधन! है न चैन दिन-रैन॥
बिनु आहार जीव की जैसे भूख न कैसेहुँ जाय।
जल बिनु जैसे तृसित वापुरो पर्यौ-पर्यौ बिलखाय।
त्यों ही रूप-रसिक ये नयना दरस बिना बेचैन॥1॥
जल बिनु दीन मीन ज्यों प्यारे! तरसि-तरसि मरि जाय।
सदा-सदा सर में हूँ सरसिज सूरज बिनु मुरझाय।
त्यों ही तुव छवि-रवि बिनु प्रीतम! विकल रहहिं ये नैन॥2॥
बहुत भाँति समुझाय थक्यौं मैं सर्यौ न एकहुँ काम।
जाकी जासों लगन न ता बिनु मिलत ताहि विसराम।
तो तुव दरस बिना ये नयना कैसे पावंे चैन॥3॥
एक बार तो दया करहु निज-दरस-सुधा सरसावहु।
इन दुखिया अँखियनकों प्यारे! धीरज नैकु-बँधावहु।
होय प्रीति-परिपोषन मोहन! जो पावहिं वे चैन॥4॥