राग माढ़, तीन ताल 4.8.1974
नयनन लगी नयन की चोट।
अब ये भये तिनहि के सजनी! मानहिं कोउ न ओट॥
तिनही में उरझे नहिं सुरझहिं, किये जतन वरु कोटि।
आय बस्यौ वह नयनन वारों नन्द महर को ढोट॥1॥
नयना लिये लिये तन-मन हूँ, गठियाई सब पोट।
अपनो अपने में न रह्यौ कछु, भइ चौसर की गोट॥2॥
ज्यों चाहे त्यों वही चलावै, मैं माटी की मोट<ref>गठरी</ref>।
वाही की मैं चलूँ चलाई, अपनो खरो न खोट॥3॥
प्रीति पगी अँखियाँ मोहन की करहिं प्रीति की चोट।
पायी प्रीति-प्रसादी हौं हूँ, भली मिली यह जोट॥4॥
प्रीति-दान दै नई मोल मैं, भई प्रीति की पोट<ref>पोटली</ref>।
मैं न रही, बस रही प्रीति ही भाव-भरी मधु-मोट॥5॥
शब्दार्थ
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