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जाकी जासों लगन लगी / स्वामी सनातनदेव

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राग भैरवी, कहरवा 19.9.1974

जाकी जासों लगन लगी।
ताहि ताहिसन काम काहु की यामें कहा ठगी॥
अलिनी प्रीति करत पंकजसों जद्यपि बँधत नहीं।
सलभ<ref>शलभ, पलिंगा</ref> बँध्यौ दीपक के रति-रस तासों बचत नहीं।
पै न तिनहिं ताको पछितायो, साँची प्रीति जगी॥1॥
मीन नीर के नेह बँधी ता बिनु तनु तुरत तजै।
स्वाति-बिन्दु को नेही चातक सुरसिर-जल न भजै।
तनु त्यागहिं पै नेह न त्यागहिं, मति-रति-रंग-रँगी॥2॥
तैसे ही जाके मन-मन्दिर प्रियतम स्याम बसै-
कोटि जतनहुँ किये न तासों ताको नेह खसै।
रहत चित्त की वृति सदा ही ताकी प्रीति पगी॥3॥
अपनो ताकों और न भासै, सबसों चित्त फिरै।
निज-पर सब ही सों असंग ह्वै हरिसों नेह करै।
विरह-मिलन दोउन में ताके उर हरि-रति सुलगी॥4॥
जगी रहत नित सुरति स्याम की, और न कछु भावै।
अग-जग में निज प्रीतम बिनु वह और न कछु पावै।
ताके मन-मन के कन-कन में प्रिय-छबि ही उमँगी॥5॥
अग-जग ताहि स्याममय भासै, हरि बिनु कछु न रहै।
हरि-स्वरूप ही मानि समीकी सब कुछ सदा सहै।
ऐसी जाकी दृष्टि मुक्तिहूँ ताकी नित अनुगी<ref>दासी, पिछलग्गू</ref>॥6॥

शब्दार्थ
<references/>