Last modified on 26 नवम्बर 2014, at 23:21

मेरो मन गयो स्यामके संग / स्वामी सनातनदेव

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:21, 26 नवम्बर 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=स्वामी सनातनदेव |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

राग रामकली, तीन ताल 17.6.1974

मेरो मन गयो स्याम के संग।
कहा करों मन बिनु अब आली! भये भोग सब भंग॥
निरखत ही वह रूप-माधुरी भयो और ही ढंग।
तन-मन की सुध-बुध सब भूली, भई सखी! मैं दंग॥1॥
मुख मयंक की वह मोहिनि छबि निरखत गयी उमंग।
अकी-जकी सी रही सखी मैं, भये सिथिल सब अंग॥2॥
अब हूँ तन मन-बिनु ही भासत, भयो अपूरब ढंग।
छूटि गये घरके सब धन्धे, व्याप्यौ अंग अनंग॥3॥
ऐसी दसा देखि मो मन की ननद करत नित तंग।
मैं का करों, करी मोहन की छबि ने मोहिं अपंग॥4॥
कैसे हूँ कोइ करो कहो अब, मोसों होत न अंग।
मैं तो भई स्याम की सजनी! रंग होइ वा भंग॥5॥

शब्दार्थ
<references/>