पंचशील खोजी कवि
अनुशासन का मंत्र लेकर
राष्ट्र कवि भ्रमर से
मानव की शुद्धि का
संदेश लेेने को चला।
राह बड़ी लम्बी
भरी कांटों, कुश, कंकणों से-
झेलने में
घायल से पाँव हुए,
मन चूर-चूर हुआ
देह की थकावट से
साधना के श्रम से,
पड़ा तब कानों में
हर हर शोर
महासागर की लहरों का
झोंके लगे तन में
शीतल समीर के
जैसे कोई प्रेम पथिका
आकर अचानक ही
लिपटे शरीर से।
और कुछ बाद ही
आंखों को स्वाद मिला
ठंडक का, जिससे
उत्साह नया,
आया दिव्य मानस में।
कदम उठे तेजी से।
”कौन हो?
कहां से तुम आये?
हे मनुष्यवर।
प्रलोभन तुम्हें कौन सा
यहाँ को खींच लाया है?
भावुकता खेलती
तुम्हारी दिव्य आँखांे में
नाचती सरलता है
चेहरे पर बेसुध बन
मुझे जान पड़ता है
तुम कवि हो,
लेकर विचार ऊँचे
यहाँ पर आये हो।“
स्वागत करने के इरादे से
ऊँची तरंग माला
पहनाने क लिए
यों ही कहता सा
बड़ा आतुर दिखलायी पड़ा
शीतल जल वैभव से
गर्वित सा सागर।
”कहते तुम सत्य हो,
रत्नाकर, नदियों की
माला से अलंकृत,
रस राशि युक्त
मानवों के लोक का
हूँ कवि एक मैं।
निकला हूँ विश्व बीच
पंचशील शिक्षा
मानवेतरों से लेने को।
मिलना है मुझको
जलाधिपति वरुण से,
निर्मल प्रकाश दें,
अंधकार सुस्त पड़ा मानव समाज है
जाकर प्रफुल्ल करूँ सबको।
साधना का मंत्र भी
जानना है उनसे,
कौन है जो
साधक की
आँखें मूंद लेता है?
और वह
गहरे गढ़े में
गिर पड़ता है।
मानव जो विश्व का सम्राट है,
ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, काम
आदि से हो विचलित
रंक से भी
दीन दीख पड़ता है।
श्री वरुण की प्रशंसा सुन
सेवा में आया हूँ
उनके ही दर्शनों के लिए
मैं अधीर हूँ।
लहरों ने किया अट्टहास
और तट को
चोट मार-मार कर
मानों यह कहने लगीं-
”हे कविवर।
नींव के बिना ही
तुम महल बनाते हो,
और बिना सोये
देखते हो सपना।
श्री वरुण के भवन की
राह कहाँ पाओगे?
रत्नाकर ही में
निवास है हमारा सदा
किन्तु हमको भी नहीं ज्ञात है,
कितनी दूर
अतल गहराई में
रत्नों से जड़ा हुआ
कहाँ महल उनका।
दिव्य साधनों से
सम्पन्न देवता ही वहां
जाते सुने जाते हैं,
मानव का
पहला प्रयास आज हो रहा है।
किन्तु कैसे कहें
सफल कामना तुम्हारी होगी।
खोजी कुछ साधन, और-
जा सको तो जाओ भी।
सागर की लहरों!
इस शुभकामना के लिए
तुम्हें धन्यवाद।
श्री वरुणा के आलय को
निश्चय ही मुझे शीघ्र जाना है।
कवि हूँ मैं
यदि कोई साधन
मुझको न मिल पायेगा,
तो तेरे पास कल्पना है
पहुँचेगी मुझे लेकर
वहाँ जहाँ हवा भी न पहुँचेगी
जहाँ गति कुंठित
सूर्य की भी होगी,
और बिजली भी जहाँ पर
हार मान बैठेगी।
कवि की कल्पना की
कौन समता कर पावेगा, और
कौन उसके प्रवाह को-
अवरुद्ध करने का
साहस दिखलावेगा?
यह कह, आवाह्न कर
कल्पना का कवि ने
पायी शक्ति ऐसी
जो है दूसरे को दुर्लभ,
मनुष्य लोक ही में नहीं
देव लोक मंे भी।
कल्पना के सहारे से
सागर के अंतस में
धँसा कवि और
अनायास बड़ी दूर तक
धँसता चला गया।
कवि की असीम शक्ति
देख कर
सागर की लहरें भी सहमीं।
कुछ दूर जाने पर
मोतियों की मालकिन
मिली अति सुंदरी।
प्रश्न किया उसने-
”कौन हो?
कहाँ को तुम्हें जाना है?
देखा नहीं आज तक
मैंने किसी मानव को
यहाँ कभी आते।
कौन तुम,
साहस तुम्हारा है
विचित्र बड़ा।
”देवि, मैं हूँ
मानव कवि,
वरुण देव दर्शन की
कामना है मुझको
मालिक होकर भी
अनमोल वैभव का
मानव दुखी है,
उसके ही दुख की दवा
पूछना है उनसे।“
कवि की सुन कर के
मिठास भरी वाणी
मोतियों की मालिकिन
मुग्ध हुई उस पर,
बोली यों उससे-
”हे सुकवि! मुझको
तुम लगे मन भावने,
तुमने जो देखा स्वप्न
भाया वह मुझको।
आओ, विश्राम करो
मेरे शांति निकेतन में,
थोड़ा आराम कर लो,
तुम थके दीख पड़ते हो
यात्रा के परिश्रम से,
शीघ्र ले चलूंगी तुम्हें
वरुण विशाल भवन को।“
कवि अनुगामी हुआ।
पहले कराया स्नान,
मोती स्वामिनी ने दिया
भोजन तब स्वाददार,
सुन्दर बिछा के सेज
फेन से भी स्वच्छ
नयी चद्दर से शोभित।
कवि से विश्राम की तब
मीठी मुसकान साथ
विनय किया उसने।
मोती स्वामिनी का आदेश यह
प्रेमभरा
स्वीकार हुआ कवि को
यद्यपि उतावली थी उसको
अपना कार्य करने की।
बीता कुछ समय
मोती मालिकिन मधुर वाणी
बोली थीं-
”हे कविवर आओ अब
चलें हम श्री वरुण के महल को।
शीघ्र ही तैयार होकर
पीछे मोतीश्वरी के
कवि चला लेकर उमंग नयी।
थोड़ी दूर जाने पर
देख पड़ा सुन्दर वरुणालय।
पानी के रंग का
महान वह भवन था,
जिसकी दीवालों में
कांति फूटती थी
जैसे लहरें समुद्र को भी
चंचल छवि देती हैं।
पन्ना, मुखराज,
मणि, माणिक, मोतियों से जड़ी
फर्श उस महल की
लहसुनिया से, हीरे से
अनमोल नीलम से,
बड़ी ही कला के साथ
मड़ी देख ऐसा कि
हर बार देखने पर
उनमें नया ही कुछ पानी था बरसता-
कवि का प्रफुल्ल मन हो गया।
आकुलता अधिक बढ़ी
शीघ्र वरुण देव का
शुभ दर्शन पाने की।
फाटक पर पहरा दे रहा था
शंख पहरेदार,
मोती मालिकिन ने
सब समाचार दे कर उसे
कहा, ”ऐसा कर दो प्रबंध
मिलें देव शीघ्र ही।“
प्रभु से मंजूरी पाकर
शंख आया बाहर
और बोला, चलिए,
बुलाते अविलम्ब हैं।“
मोतीश्वरी और कवि
दोनों गए अन्दर।
रत्न जड़े सिंहासन पर
विराजमान थे
वरुणदेव,
देखकर मोतीश्वरी
और कवि को वहाँ
आये निज कक्ष में,
बोले, ”यहाँ मानव का
आगमन कैसे हुआ?
कहिए, मोतीश्वरी।“
मोतीश्वरी ने जब
कुछ दे दिया परिचय,
कवि ने इस भांति तब
बात कही अपनी।
”देव, मैं हूँ मानवों का कवि,
यहाँ आया हूँ,
प्रभुवर से कुछ
उपदेश प्राप्त करने।
विद्या बुद्धि हममें है,
उसका सहारा ले
ब्रह्मा क ढंग पर
हम भी विचित्र
रचनाएँ किया करते हैं।
स्वर्ग से भी गंगा को
धरती पर
हमने ही पहुँचाया,
मरुभूमि को भी
सुरकानन की तरह रमणीय
हमने ही किया,
एटम बम, और हाईड्रोजन
आदि संहारक बमों
का हमीं ने किया आविष्कार,
जगत के जीवों का
चाहे हम नाश करें
और चाहें करुणा का दान देकर
जीने दें उनको।
इतनी क्षमता है तो भी
मानव दुखी है आज
सुना है पंचशील-
व्यवहार करने से
दुख यह दूर होगा
सुख का प्रभात होगा।
कृपा कर इसका ही
उपदेश दीजिए; जिससे मैं
प्रभुवर के श्रीमुख से
प्राप्त वचनामृत को
मानवों में सुलभ बनाऊं
और उनकी अशांति सब
नष्ट करूँ जड़ से
जैसे अरुणोदय की ज्योति से
कमलों की कसकन दूर भागती है
बोले तब वरुण देव।
”मानव कवि,
बातें यह तुम्हारी सुन
बहुत प्रसन्न हूँ मैं।
अपने लिए नहीं,
अपने समाज के सुख के लिए
भूतल को छोड़
तुम यहां तक आये हो,
ज्ञान की यह देख कर
इच्छा बढ़ी तुममें
मुझको संतोष है।
तुमने तो बात कही
मानव सामर्थ की
मानव की
विश्व विनाशिनी शक्ति की,
सो कहूँ मैं सत्य,
वह शक्ति नहीं
मानव की वह तो कमजोरी है।
सारा विश्व एक ही इकाई है-
सच्ची यह बात भूल
हम यह मानते हैं
उसमें दो विचार भी हैं,
कल्पना से अपने विरोधी की
मूर्ति हम एक गढ़ लेते हैं
और तब
लड़ते हैं उससे,
लोहे के अस्त्रों से मार
चूर चूर करते हैं उसको।
ऐसा नाश करने में
कौन सी भलाई है?
कौन सी बड़ाई है?
मैं तो कहता हूँ यह
मानव यों मत्त होकर
मूर्खता का ही परिचय देते हैं।
उनसे तो अच्छे वे जीव हैं,
गाय, भैंस, बैल, ऊंट
गधे और घोड़े आदि,
जो किसी की हानि नहीं करते
और सब लोगों की
सेवा में हमेशा लगे रहते हैं।
जगत के प्राणियांे को
मानव ने त्रास दिया
सबको बनाकर दास
अपना विकास नहीं
नाश किया।
साँप में है थोड़ा विष
मानव में उसका है हजार गुना
वही महाविष लेकर
वह घूम रहा है
चारों ओर
संहार का ही
फहराता हुआ झंडा।
संहार की यह अवगुण भरी आदत
जो है टिकी हुई झूठ पर,
छल, धोखाधड़ी के-
सहारे पर चलती है,
मार कर दुनिया को
अंत में मानव का
कलेवा कर डालेगी।
सावधान उसको अब होना है,
दो का विचार छोड़ देना है
फर्क नहीं करना है
मानव और मानव में
भोजन सबको ही मिले
वस्त्र पायें सब लोग
रहने के लिये मकान
सुन्दर हो सबका।
रोग में फँस जाने पर
दवा सबको ही मिले
जिंदगी बेकार किसी की भी
मत मानी जाये
सभी जियें और
निज शक्ति अनुसार करें
काम इस लोक का।
पंचशील व्यवहार
सेवा और प्रेम की
भावना को लेकर ही चलता है।
एक बात और कहता हूँ
समझो उसे!
आंधी, तूफान की
कमी नहीं है, विश्व में
घास अपने ही आप
उगती है खेत में।
आग भी अचानक
लग जाती है जंगल में।
जीवन का अधिक अंश
ऐसी ही चीजों से घिरा हुआ है।
इनको बढ़ाना
विष अपना बढ़ाना है,
अपने ही मन को
उस आग में जलाना है,
जिसे नहीं आता है बुझना।
मेरे यहां आग नहीं
आंधी, तूफान नहीं
घास नहीं
जिनसे मिटता है जन जीवन।
मेरे यहां पानी है
शीतलता देकर जो
प्यास को बुझाता है
जिसमें से लहरें उठती हैं
प्रेम और त्याग की।
जिससे कलेजा दुखे
किसी भी गरीब का
ऐसा काम करो मत
ऐसी बात कहो मत
सूखनी जो खेती
उसे आँसुओं से सींच दो,
पौधे उग आयें
फूलें फलें
प्यार बांट कर।
फली फूली खेती पर
आग बरसाओ मत
अपनी वासना की
काम क्रोध और लोभ की।
चोरी कर,
डाका डाल
अपना पेट पालो मत
काम बांटो उनको
जो काम बिना बैठे हैं।
सेवा में, शासन में
राह मत छेंक लो औरों की,
दूसरे प्रवेश करें,
उनको भी मौका दो।
मेरे यहाँ पानी के राज्य में
मेढक और मछली का
मगर और केकड़े का-
सब का समान अधिकार
माना जाता है।
मेरे सिंहासन छोड़ देने पर
आकर आनन्द से यहां
कोई बैठ सकता है।
मोह नहीं मुझको है,
यही ढंग सेवा का
विकसित हो मानवों में
रत्ती भर मोह में न अस्त हो
निज हित ही न व्यस्त हों
औरों का स्वार्थ
मान लें वे स्वार्थ अपना
पंचशील सार यही
इसमें उद्धार सही।“
देव शिक्षा यह आप की
जिन्दगी के पथ में
प्रकाश देगी मुझको
मेरे चिन्तित मन को
अब शान्ति मिली
अभी मुझे जाना है,
अग्नि लोक, मारुत लोक, और
व्योम लोक में
सब को आशीष लेकर
सफल मुझे होना है।
साष्टांग मेरा प्रणाम स्वीकार हो।
ऐसा कह मोतीश्वरी के साथ कवि
वरुण देव कच्छ में से निकले।