पुष्पनगर से जब कवि
बाहर को निकला था
तभी से वहाँ के अधिकारी
राह जोहते थे उसकी।
राष्ट्र कवि और राष्ट्रपति तो
विशेष कर उत्सुक थे
जानने को
प्रायश्चित अपने प्रमाद का
कैसे किया उसने।
बीते दिन और रातें
बीत गयीं कितनी
कविवर को देखने की
उत्सुकता दिनों दिन
बढ़ती ही जा रही थी।
भेजे राष्ट्र कवि ने
दूत कितने समुद्र पास,
भौरों की भीड़
कितनी ही अन्य जगहों में निकली,
लक्ष्य एक सिर्फ
या कविवर को ढूंढ़ना।
कहीं भी पता न लगा
हार मान बैठे सब,
पछताने लगे, व्यर्थ
कवि को हैरान किया,
भेज दिया,
विश्व भटकने को।
कवि का प्रमाद अब
हलका सा लगता था
अपनी ही भूल
थी पहाड़ जैसी लगती।
जब थे निराश
राष्ट्र कवि और राष्ट्रपति,
दूतों की मेहनत सब
हो गयी थी निष्फल
तभी एक दिन
दिखलायी पड़ी
चिड़िया सी कोई चीज सुन्दर,
विचित्र बड़ी
जो लगी उतरने आकाश से
क्रम क्रम से वहीं
पुष्पनगर की जमीन पर।
शीघ्र रूप चिड़िया का
ओझल हुआ आँखों से,
सुन्दर विमान एक
ज्योति निराकार और
साकार दोनों लिये
सामने हुआ उनके।
”साधारण सवारी नहीं
पुष्पक विमान यह!
चिल्लाये राष्ट्र कवि
गुन गुन के स्वर में
और गर्व गौरव के भाव से
पुलकित हो गये।
पुष्पक विमान आज
पुष्पनगर भूमि पर
उतर रहा है
धन्य भाग्य हम लोगों का।“
कहते हुए आगे बढ़े
राष्ट्र कवि, राष्ट्रपति
और जिस समय तक
पुष्पक विमान ने
टिकाव पाया धरती पर
दोनों मालाएँ लिये हाथों में
थे पहुँच गये
प्रेममय स्वागत के रूप में
पहनाने को उसको।
पुष्पक विमान से
आकर के बाहर
लाखों हृदयों का
उल्लासपूर्ण स्वागत
देख कर
और राष्ट्र कवि को ही
अपनी सफलता का
अधिकारी मान कर
पैरों पर उनके
नवाया सीस।
उसे राष्ट्र कवि ने उठाया
और गले से लगाया
फिर भाव की अधिकता से
कवि के ही कदमों पर
वे गिरे।
”देव, यह आप ही का गौरव है
आप ही की प्रेरणा से
मैंने प्रयास किया,
जिसके योग्य शक्ति
थी कभी नहीं मुझमें।
वरुण, अग्नि, मारुत ने,
तथा विष्णु आदि सब देवों ने
अनुग्रह किया मुझ पर
जिसका प्रमाण यहां
पुष्पक विमान है,
मारुत ने मेरे लिए
मंगवाया इसको
श्री कुबेर के भवन से
गदगद हो यह कहा
कवि ने राष्ट्र कवि से।
बोलता था जब वो
मुँह और उसके
बेशुमार आँखें
थीं लगी हुई
मुग्ध होकर वहाँ पर
खेलती अनंत दिव्य आभा से।
पलकें झंपती नहीं थीं
मन था हटता नहीं
पुष्प नगर के लिए था
कवि परदेशी सा
पुष्प जाति का भी नहीं,
मानव था।
किनतु बढ़ी
इतनी उमंग सहृदयता की
घुली मिली भावना की,
उस समय
अंतर रहा न बाकी
पुष्प और मानव में
मिटा वह
जैसे मिट मिट बनती है
मोम आग सामने।
यह भाव देख कर
डूब गया
कवि आत्म विस्मृति में।
कुछ देर बाद
जब जागा
वह अपनी समाधि से,
पुष्पनगर वासियों को
सम्बोधित उसने किया-
”आदरणीय, राष्ट्र कवि,
राष्ट्रपति महोदय,
तथा पुष्पनगर वासियों,
आप के इस
प्रेम भरे स्वागत की
कीमत कम करूँगा नहीं
धन्यवाद देकर,
आप ही ने मुझको बढ़ाया है
आप ही ने
राह वह दिखलायी है
जिस पर मैं यात्री बना
लेकर के
लगन, उमंग और साहस।
आपने जो
मुझको इशारे दिए
साधना, संघर्ष के
दामन में
पकड़े रहा उनका
कभी नहीं उसने किनारा किया।
मूल मंत्र
दिया मुझे आपने
उसको ही दुहराता,
धोखता मैं
आगे चला गया।
इतने के लिए
आप मुझको सराहते हैं
तो फिर सराहें आप
अपने को और भी।
जो हो, दो बातें
मुझे, आप से कर लेनी हैं,
उसके बाद
शीघ्र ही जाना है
मानवों के लोक को
जहाँ मेरी राह
अब जोह रहे होंगे
प्यारे बन्धु मेरे।
आप में अब
ऐसे बन्धु थोड़े हैं,
जिनमें है विचार अभी लड़ने का
लेकर हथियार
क्रूर कांटों का।
मेरा यह निवेदन है
इन हथियारों के प्रयोग की
नहीं है अब जरूरत।
आप में अहिंसा के भावना की
है जो विशेषता
जिससे ही
होकर के आकर्षित
आना पड़ा मुझको
उसको बढ़ाये चलें
कांटों को घटाये चलें
या यों कहें,
काँटों को घटाये चलें
या यों कहें,
काँटों को मिटाये चलें,
तभी आप
ठीक राह पायेंगे
अपनी प्रगति की।
माना यह
काँटे जब होंगे नहीं
क्रूर काले कीड़ों का जुल्म
ज्यादा बढ़ जायगा,
आप के घरों में वे
मनमाने आयेंगे
ऊधम मचायेंगे,
बुरा नहीं मानता हूँ,
मैं यह उपद्रव जो
थोड़े दिनों बाद
दम तोड़ देगा आप ही।
आप में ही
मानते हैं
जो अहिंसा, प्रेम का
और अस्त्र काँटों का
पास नहीं रखते
उन पर क्यों जुल्म
ढाता नहीं कोई है?
कीड़ा जाता है पास उनके,
थोड़ी देर बैठता है
और शीघ्र तृप्ति पाकर
और कहीं जाता है
उसकी भी प्रगति
बेरोक चली चलती है।
किन्तु जहाँ काँटों का किला
तोड़ना पड़ता है उसे,
व्यर्थ काट छाँट में
शक्ति नष्ट होती है
जिसे लगना चाहिये था
रचना के कार्य में।
डालों से लोग तोड़ लेते हैं आपको
आप हंसते ही
उनके भी
साथ चले जाते हैं
देवियों के
केशों में बंध कर
गले की माला में गुंथ कर
उनकी ही
शोभा, सुन्दरता को बढ़ाते हैं।
आप में अहिंसा प्रेम
देख इस ढंग का
मानव सब दाँत तले
उँगली दबाते हैं।
आचरण आप का
मानव के लिए तो है
अनुकरणीय सब ढंग से
केवल जो थोड़ी सी
कसर है
उसको भी आप लोग
दूर कर दीजिये।
ऐसा हो जावे तो
मानव सब आप ही की
पूजा करने लगे।
शक्ति आप में है
आप बुद्ध और गांधी की अहिंसा को
सृष्टि के समस्त
प्राणियों के मन, प्राण में
पल्लवित, पुष्पित और
फलीभूत कर दें।
बुद्ध ने सिखलाये जो
पंचशील मानव को
स्वाभाविक ढंग से
आप में सभी वे मौजूद हैं।
मानव तो
सीख सीख भूलता है।
प्रकृति प्रेम पालने में
आपको निरंतर ही
सबक है सिखाती
व्यवहार भी कराती है।
बुद्धदेव हार जहां जायेंगे
प्रकृति वहां जीतेगी
आप की प्रशंसा में
मेरे दूसरे कवि मित्र
बड़े बड़े काव्य लिख
गुणानुवाद आप का
करेंगे देश देश में।
आप से
लेकर शुभकामना अब
चाहता हूँ जाना मैं
मानवों के लोक में
जहां द्वंद मचा है
द्वेष का, आसक्ति का
सीखा है मैंने जो आप से
उनको बताऊँगा।
सीखा है
जो कुछ इस यात्रा में
वरुण, अग्नि, मारुत से
और श्री विष्णु से
वह भी सब उनको समझाऊँगा।
मेरी भूलों को
आप क्षमा करें
मेरा यहां आगमन
अंतिम नहीं होगा
आऊँगा, फिर फिर
अपने हृदय में
शक्ति का संचार करने के लिए।
नमस्कार मेरा
स्वीकार सब कीजिए।
यह कह कर
बैठा कवि
पुष्पक विमान में।
देवताओं, गंधर्वों और किन्नरों ने
फूल बरसाये
भर गया विमान सारा
फूलों से,
या यह कहें,
पुष्पनगर के वे पुष्प ही
पा गये प्रवेश
जैसे तैसे पास कवि के
और नहीं चाहते थे
किसी तरह
उसका साथ छोड़ना।
पुष्पक विमान को भी
शायद भय हो गया कि कहीं
पुष्पनगर ही न आतुर हो जाय सारा
चलने को कवि के साथ।
उठा वह, ऊँचे चढ़ा क्रमशः
और चल पड़ा उस तरफ
जिधर चलना था कवि को।
व्याकुल से, अधीर से
पुष्पनगर के पुष्प
देखते ही रह गये।
कवि के परिवार वाले,
मित्र और
परिचित सब
मानवों के लोक के
नहीं जानते थे
कवि कहां और किधर को
अचानक चला गया।
बीते थे
महीने से भी अधिक दिन
कवि के सम्बन्ध में
चिन्ता बढ़ती ही
चली जा रही थी।
अकस्मात् आसमान में
दिखलायी पड़ा विमान जब
उनको आश्चर्य हुआ।
किन्तु जब विमान वही
क्रम क्रम से नीचे वहीं आने लगा
सामने ही उनके,
बढ़ा आश्चर्य तब
ज्यादा से ज्यादा।
और यह आश्चर्य
शीघ्र ही महान हर्ष साथ
कर संगम
खोयी हुई सम्पदा को
पाकर ज्यों कोई सूम
खुशी की अधिकता से
पागल सा होता है
त्यों ही
जब पुष्पक विमान आया
पृथ्वी पर और
कवि उसमें से निकला
व्याकुल मानवों की भीड़ दौड़ कर-
अपनी अधीरता
प्रगट करने लगी।
कोई चाहता था
गले लग कर लिपट जायें
कोई चाहता था
गिर पैरों पर
आंसुओं से उनको धो डालें और
उनकी थकावट सब दें मिटा।
श्रद्धा और प्रेम का स्वागत
यह देख कर
कवि पुलकित हो गया।
स्नेह भरी वाणी में
बोला कवि विमान से-
”प्यारे देव यान!
तुमने मुझे जो सुविधा दी
उसके लिए किस तरह
तुमको धन्यवाद दूँ।
मेरा कार्य पूरा अब हो गया।
जड़ वस्तुओं से बने
फिर भी तुम चेतन हो
जाओ चले अब
श्री कुबेर के भवन को
उनसे प्रणाम मेरा
लाख लाख कहना।“
कवि की यह वाणी सुन
पुष्पक विमान उठा
और पलक झांपते ही
ऊँचे जा उड़ने लगा
विस्तृत आकश में।
उसकी ही ओर लगी
सैकड़ों, हजारों आंखें
एक टक देखती थीं
विस्मय से डूब कर।
शीघ्र हुआ
आँखों से ओझल वह।
और तब कहने लगा यों
कवि जनता से-
इस बीच जो थी
ऐसी उमड़ आयी
जैसी उमड़ पड़ती हैं
सावन में नदियाँ।
”बहनों और बन्धुओं!
यह भावुकता ठीक नहीं,
प्रेम का प्रदर्शन
जो किया आप सब ने
जितने के लायक मैं हूँ
बहुत बढ़ा
उससे भी आगे।
काबू में अपने को लाओ और
प्रश्न करो-
तुमने इतने दिन बिताये कहाँ?
और इस बीच
कौन काम कर लाये हो?
लोग हुए शान्त और संयमित
और बोले एक साथ-
”प्यारे कवि!
जिज्ञासा हमको है,
कहाँ कहाँ घूमते
फिरे हो तुम इतने दिन
और स्वजनों के लिए
काम कर लाये हो कौन सा?
पाया यह पुष्पक विमान कहाँ?
-उत्तर में कवि ने कहा-
”आपस में घृणा, द्वेष,
वैमनस्य देख कर मानवों का,
मुझे हुई चिन्ता
और मैं इस खोज में लगा कि
कैसे शांति मिले लोगों को।
पुष्पनगर में मैं गया
वहाँ यह देख कर
मुझको अचम्भा हुआ,
विद्या बुद्धिहीन
जड़ पुष्पों में
एक दूसरे के प्रति
कोई द्वेष भाव नहीं।
सुखमय वहाँ
सबका है जीवन।
बुद्धदेव ने जो रास्ता
शांतिमय खोजा था
आपस में पंचशील का-
निर्वाह करने का
उसका भव्य, सुन्दर स्वरूप मुझे
वहाँ दिखलायी पड़ा।
मुझसे प्रमाद कुछ
हो गया अचानक,
तब प्रायश्चित करने को
जाना पड़ा
वरुण, अग्नि,
मारुत के लोकों को।
जल तत्व जीवन में
सब से महान है
वरुण ने बताया मुझे
सब प्रश्न जीवन के
शांति से ही
हल होने चाहिए।
दौड़-धूप, हाहाकार,
व्याकुलता, प्यास-
ये जीवन के लक्ष्य नहीं है,
ये हैं बतलाते बस
जगह कहीं एक है
जहां शोर गुल सारा
थक कर के
आप ही सो जायगा।
झींगुर की झनकार भी नहीं
सुनायी पड़ती है जहां
ऐसा सन्नाटा है
वरुण के महल में।
देखा मैंने
शांति वहीं बैठी है
चंवर डुलाती उसे
वरुण, अहिंसा दो सखियाँ।
वरुण देव दर्शन के बाद
अग्नि पास गया,
देखी वहाँ जीवन में
ताप की भी महिमा।
लहरें महासागर की
लगती हैं सुन्दर,
सूरज की गरमी भी
आवश्यक है हमें।
खड़ा नहीं रहना है
एक ही जगह पर,
हमको संसार में-
मारुत के लोक में
शिक्षा यह प्राप्त की।
पुष्पनगर में
प्यार पृथ्वी का पुष्प रूप,
शीतलता जल की
दाहकता आग की,
मारुत की गति-
कहीं यह सब न साथ
एक दूसरे का छोड़ देवें
और अपनी शक्ति की
निरंकुशता लें बढ़ा-
चिन्ता मुझको हुई।
मुझको बताया गया-
जब कोई मानव
खा ले इतना कि
उसे होवे बदहज़मी
और पास ही खड़ा हो
दूसरा भाई उसका
पेट को खलाये
अति आतुर क्षुधा से।
कर्म जब मानव का
इतना विषमतामय
पंचतत्व होकर के-
भीषण उसे
क्यों न करें दंडित?
इसीलिए मारुत ने,
अग्नि ने, वरुण ने
अस्त्र दिये मानव को
भिन्न भिन्न,
मारे अपने भाई को
और आप भी मरे।
किन्तु यदि मानव के
कर्म शुद्ध हों तो
सब शक्तियाँ प्रकृति की
सन्तुलित होकर के
देती है उसको
जीवन में शांति सुख।
तो फिर सुधारना है
कर्म हमें अपना,
दूसरे की दौलत, अधिकार
छान लेवें नहीं
चोरी नहीं करें,
झूठ बोले नहीं,
निंदा, अपशब्द
कभी जबान पर लावें नहीं
अपना नुकसान कर
दूसरों का लाभ करें।
ऐसी आदत लगाने से
हिंसा का अभाव होगा
हममें सहज ही।
शून्य लोक में भी
मैं गया था, वहाँ जाकर के
जाना यह मैंने
शून्य होने में
त्याग करने ही में
निवास सब शक्ति का है
इसीलिए विष्णु
सारे देवों में प्रधान हैं।
उनसे भी मैंने
निवेदन किया है यह-
प्रेरित करें वे
विचार समता का आवे
उन तत्वों में
मानव के जीवन पर
शासन है जिनका।
समझाया मैंने
सभी ने यह माना है
मानव की दुर्गति
है हो गयी अधिक अब।
मूल शक्ति जिससे
प्रवाह सदा पाती है
मानव विकास और
होगी अब उन्मुख।
मानव शुभ कर्म करे
प्रकृति भी साथ दे-
दोनों में समान भाव बढ़ने से
मानव का काम, क्रोध, लोभ
होगा सीमित,
संतुलित होकर
ये मानव की वृत्तियाँ
उसकी सुख-सुविधा की बाढ़
आप लायेंगी।
क्लेश सब जगत के
दूर अनायास होंगे
धरती पर
स्वर्ग बिना रोक चला आयेगा।
आज मुझे चाह नहीं बाकी
किसी बात की
अनुभव करता हूँ
मुझे सारे ब्रह्मांड पर
आज अधिकार मिला।
हवा की सी हरकत मिली
तेज मिला अग्नि का
हरकत, तेज दोनों में
शीतलता भी भरी।
मिलीं ये विभूतियाँ तो
धरती ने भी दिया
फूलों की
सुन्दर महक मनहारिणी।
इतने दिन
आप से रहा हूँ दूर
किन्तु मैंने नष्ट नहीं
किया है समय को,
पहचाना अपना प्रमाद मैंने पहले
और तब साधना की
जीवन की शक्तियों की।
मुझे कहना है
अपने देशवासियों से
विश्व के निवासियों से
इस विश्व बीच
जहाँ कहीं बसा मानव
वहाँ संदेश यही
भेजना है मुझको।
शीघ्रता से या कुछ देरी से
पंचशील ही के आदर्श पर
चारों ओर
घूम भटक लेने पर
मानव को उसी तरह
आना पड़ेगा, जैसे
कुतुबनुमा सुई को
उत्तर की तरफ
मुँह करना ही पड़ता है।
मानव की बुद्धि
शुद्ध होवे, वह ठीक
रास्ता अपना पहचान कर
पंचशील निर्वाह ओर
दत्त चित्त हो-
आशा ही नहीं है
मुझे पूरा विश्वास है,
मेरी यह मानव शुभकामना
कभी नकभी निश्चय ही
सफलता को पायेगी।“
यों ही कह
कवि ने समाप्त किया
व्याख्यान अपना,
सुनने वाले मुग्ध हुए
वाणी सुन अमृतभरी
देख छवि साधक की
कविवर के चेहरे पर
मन ही मन
सब ने प्रतिज्ञा की
पंचशील पालन की
और जब अन्दर का भाव
व्यक्त किये बिना
रह नहीं पाये वे
ऊँची आवाज में
की प्रतिज्ञा वही घोषित।
साथ साथ
जय जयकार महाकवि का
गूँज गया, धरती पर
और आसमान पर
भौंरे लगे घूमने
बाँध बाँध टोलियाँ,
गुन गुन कर मानो वे
कोयल के ”कू कू“ स्वर बीच
यही गाते थे-
बीत गयी रात,
नया प्रात अब आयेगा।"