भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सूरज के घर / शशि पाधा

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:50, 29 नवम्बर 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शशि पाधा |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चलो हम सूरज के घर जाएँ !
रोज़ हमें वो मिलने आता
हम भी मिलने जाएँ
चलो न सूरज के घर जाएँ

तीज त्योहारों मे हर कोई
अपनों के घर जाता है
उपहारों की मीठी डलिया
भेंट रूप ले जाता है

धरती की कुछ न्यारी चीज़ें
भर लें अपनी झोली
भेंट भरी जिस गठरी में
क्या, कभी किसी ने तोली

नदिया से कुछ लहरें ले लें
तरुवर से कुछ छाँव
झरनों की झाँझर छनकाएँ
पवन को बाँधें पाँव

भँवरों से लें मीठी गुंजन
कोयल से मधु गीत
चन्दन छिटकें उपहारों पर
छिटकें मन की प्रीत

फूलों से लें भीनी खुश्बू
बागों से लें कलियाँ
तितली से रंगों की पुड़िया
जुगनू की सत लड़ियाँ

आज रात जब सूरज सोये
सब कर लें तैयारी
प्रेम की सब सौगातें बाँधें
गठरी बाँधें न्यारी

ओढ़ घटा की नीली चूनर
पंछी से उड़ जाएँ
चन्दा की इक नाव बनाएँ
नभ सागर तर जाएँ

भोर होने के पहले ही हम
पहुँचें उसके द्वार
आँख खुले जब सूरज की
तब भेंट करें उपहार

गले लगें तपते सूरज के
कुछ तो ठंडक दे दें
रंग भरी गगरी छलकाएँ
प्रेम की होली खेलें

युगों–युगों से तपता सूरज
तन अपना पिघलाता
बदले में ना माँगे कुछ भी
अद्भुत रीत निभाता

जीवन में इक बार कभी तो
ऐसा कुछ कर जाएँ
जीवन दाता ज्योति पुंज का
कुछ तो ऋण चुकताएँ

चलो हम सूरज के घर जाएँ
चलो न सूरज के घर जाएँ