भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
न थीं कोई ईंट दीवारें / शशि पाधा
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:00, 29 नवम्बर 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शशि पाधा |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} ...' के साथ नया पन्ना बनाया)
न थी कोई ईंट दीवारें
न थी कोई सीमा रेखा
रिश्तों के आंगन में फिर क्यों
मौन का विस्तार देखा
जाने कब से जमी पड़ी थी
कुंठाओं की धूल –परत
किसने घर की ताक पे रख दी
शंकाओं की लिखत –पढ़त
देहरी द्वारे प्रहरी बैठा
कोहरे का प्रसार देखा
बंधी रह गईं मन की गांठें
उलझन कोई सुलझ न पाई
बन्द किवाडों की झिरियों से
समाधानों की धूप न आई
सुख की डोली सजी खड़ी थी
मूक खडा कहार देखा
दो पग चलना मुश्किल न था
मीलों की तो बात नहीं थी
मन शतरंजें खेल रहा था
जीत नहीं थी, मात नहीं थी
लाँघा न प्रश्नों का पर्वत
उत्तर गिरा कगार देखा
मंजिल रस्ता एक ही साधा
दोराहा कब आन जुडा
कुछ पल ठिठके बीच डगर पे
हाथ छोड़ कब कौन मुड़ा
सन्नाटों के कोलाहल में
शब्द बड़ा लाचार देखा
कोहरे का अम्बार देखा