भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मन मोरा आज कबीरा सा / शशि पाधा
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:05, 29 नवम्बर 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शशि पाधा |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} ...' के साथ नया पन्ना बनाया)
मन मोरा आज कबीरा सा!
अपनी धुन में गाता फिरता
ढपली और मंजीरा सा
छूटा जग का ताना –बाना
अपना ही घर लगे बेगाना
गली –गली फकीरा सा।
न जाए अब मथुरा काशी
न ढूंढे रत्नों की राशि
कंकर-कंकर हीरा सा
बाहर भीतर एक रूप मैं
कभी मैं साधु कभी भूप मैं
रंग–रंग अबीरा सा
दूर डगर अब चला अकेला
बाँध न पाए जग का मेला
सागर तीरे धीरा सा
मन मोरा आज कबीरा सा।