-1-
यह बात मैं आज तक समझ न सका
मैं क्या चाहता हूं ?
क्यां अपनी इच्छाओं के दमन पर हंसता हूं ?
मुझसे छूट जाते हैं झूठे आश्वासनों में
दबे बैठे वे चेहरे
जिन्हें अभी घर से निकलना है
और लौटना है देर रात
अपने जबड़ों में गर्दन फंसाए
मैं हर चोट पर याद करता हूं
नदी में बहाए अस्थियों और ठंडे फूलों की
उन आवाज़ों की
जो हर कहीं मौजूद हैं अपनी उदासी और दुख के साथ
मैं नहीं चाहता
इच्छाएं और सपने मर जाएं
मैं ज़िंदा रहना चाहता हूं
वैसे ही जैसे मरने के बारे में
सोचता हूं
मैं अपनी अदना हैसियत से
सामना करता हूं उन चुनौतियों का
जिनका ज़िक्र भी
कम करता है मेरी वास्तविकता को
अगर मैं मुक्त नहीं हूं ख़ुद से तो
यह एक खेल है
और मैं लगातार हारता हूं जीते उपमानों से
तब भी मेरा यक़ीन मूर्तियों के लिए नहीं है
जिन्हें छला जाता है
यह एक क़िस्म का अत्याचार है
मैं लांघनाओं, वर्जनाओं से बाहर हूं
मैं एक पिघलता शब्द
चुपचाप इस पृथ्वी पर
हूं मौजूद अपने यथार्थ और काल्पनिक भेश में
- 2 -
मैं नहीं चाहता मेरे शब्द
इस दुनिया पर बोझ की तरह हों
मैं आने और जाने के बीच
चलने और रुकने के मध्य
थमा हुआ हूं
मुझे घिसा जाए तो
संभव है बोल पड़ूं
लेकिन ऐसा है नहीं कहीं
सब चाहने और न चाहने के बीच
रुका हुआ है !!
- 3 -
मेरी भूमिका संक्षेप की है
बतौर एक कवि मेरे पास जितने
संसाधन हैं
उन्हें उलट दिया है दुनिया की
तमाम बाहरी कोशिशों ने
जितनी संभावनाएं
कवि के ख़िलाफ़ जाने में हैं
उतनी ही बची हैं कम एक कवि के
निम्नतम स्थितियों में पहचाने जाने की
- 4 -
शब्द, धूल और धुंए से
मैं चौंकता नहीं
मैं सवाल करता हूं ख़ुद से
मेरा दिमाग यातनाघर है
जहां ढेरां चीजें़ दफ़न हैं
मेले, आंसू, पुकार भरी चीखें,
चाय लेते दुर्घटनाओं, हत्याओं की ख़बरं
अस्तबलों की उठती गंध
रंगों में खोती तस्वीरें
लेकिन मैं रचा हुआ हूं
मेरी कोशिशे द्वंद्व हैं
यह जीवन उतना सहज नहीं
जितना कि अपने लिए ही लड़ना
अब मैं वास्तविक स्थिति में हूं
मैं शुभकामनाएं रखता हूं
कि जीवन में उन चीज़ों की ज़रूरते न हो
जो बतौर इंसान छिनती हैं मुझसे
मेरी भाषा,
मेरे द्वंद्व,
मेरी पहचान
मैं किन्हीं इच्छाओं सपनों के टूटने से
नहीं चौंकता
मैं उनके नहीं होने से चौंकता हूं