भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दोहा / भाग 5 / हरिप्रसाद द्विवेदी

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:58, 31 दिसम्बर 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरिप्रसाद द्विवेदी |अनुवादक= |संग...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मिलियौ तहँ परखति प्रिये, मिलिहौं सरबसु बारि।
बिसिख हारु हौं पैन्हिं, तुम ज्वालमाल उर धारि।।41।।

चली चमाचम चोप सौं, चकचौंधिनि तरवार।
पटी लोथ पै लोथ त्यौं, बही रक्त की धार।।42।।

रमा भारती कालिका, करति कलोल असेस।
बिलसति बोधति संहरति, जहँ सोई मम देस।।43।।

मिली हमैं थर्मोपिली, ठौर ठौर चहूँ पास।
लेखिय राजस्थान में, लाखन ल्यूनीडास।।44।।

मनु मेरो चित्तौर मैं, लखि तेरो जस थम्भ।
भ्रमतु हँसतु रोवतु अहो, सुभठ मौलि नृप कुम्भ।।45।।

सौर्य सरित सिंचित जहाँ, जूझन खेत हमेस।
मारवाड़ अस देस कों, कहत मूढ़ महदैस।।46।।

अहो सुभट तोनित सन्यौ, दृढ़ब्रत हल्दी घाट।
अजहूँ हठी प्रताप की, जोहति ठाढ़ो बाट।।47।।

इतहूँ तौ रण चन्द्रिका, वैसोइ खेली खेल।
राजस्थान से घटि कहा, हमरो खण्ड बुँदेल।।48।।

पराधीनता दुख भरी, कटति न काटे रात।
हा! स्वतन्त्रता कौ कबै, ह्वैं है पुण्य प्रभात।।49।।

पर भाषा पर भाव पर, भूषन पर परिधान।
पराधीन जन की अहैं, यही पूर्ण पहिचान।।50।।