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दोहा / भाग 5 / बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’

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हमें बावरो कहत सब, जो हम जोहत बाट।
कहा कहैं? कछुपरि गई, ऐसी रेख ललाट।।41।।

हम विषपायी जमन के, सहैं अबोल कुबोल।
मानत नैकु न अनख हम, जानत आपुन मोल।।42।।

अजहूँ कछु-कछु है स्मरण, वा मुख की मुसकान।
कबहूँ तो या पन्थ ह्वै, निकसैंगे रसखान।।43।।

कोलाहल मचि जाइगौ, उमड़ैंगी जन-भीर।
तब साजन रस-बस खिंचे, ढ़रकैंगे हम तीर।।44।।

विह्वल चरण पखारिहैं, ये युग नयन अधीर।
न्योछावर ह्वै जाइंगे, उन पै हम स-शरीर।।45।।

मैं, जब तक पिय ना ढ़रत, हुलस हमारी ओर।
तब तक हम रहिहैं सतत, गहे प्रतीक्षा डोर।।46।।

पंछी बोलत चैं चटक, सलिल करत कल नाद।
सब जग ध्वनिमय, ह्वै रह्यो, हमैं मौन उन्माद।।47।।

कहा कहैं? कछु समझ हूँ, परत न कोऊ बात।
शब्द बापुरें सिमिट कैं, सकुचि सकुचि रहि जात।।48।।

उठि-उठि आवत कण्ठ लौं, हिय उत्ताल तरंग।
पै यह रसना बावरी, देत न बाकौ संग।।49।।

मौन रहहु जनि कछु कहहु, सहहु जगत अपवाद।
गूँगे ही तुम ह्वै रहौ, हे ‘नवीन’ अविवाद।।50।।