Last modified on 31 दिसम्बर 2014, at 13:20

दोहा / भाग 7 / बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:20, 31 दिसम्बर 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' |अनुवादक= |सं...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

तुम्हैं खिझाय रिझाइबौ, दुलरैबो प्रतियाम।
सतत बलैया लेइबो, यही हमारो काम।।61।।

तुम बोलै-निलज्ज हम, हमें न लौकिक लाज।
पै हमने यह कब कही, कि हम लोक-सिरताज।।62।।

खीजहु मत, रंचक सुनह, ओ सलज्ज-सरदार।
हमरे दृग में लखि तुम्हे, बिहँसि रह्यो संसार।।63।।

नैनन में मन प्राण में, रोम-रोम में आज।
चौंडे ही तुम रमि रहे, कितैं तिंहारी लाज।।64।।

जो तुम लज्जा शील तौं, क्यों न हियें तें जाहु?।
प्रीत न छानी रहि सकत, सजन अब न शरमाहु।।65।।

जब हम माँगत अधर रस, तबही तुम मुसकात।
फिर नाहीं करि देत हौ, कहहु लौन यह बात।।66।।

हम नितान्त बौड़म बजत, बीते बरस अनेक।
मारे मारे हम फिरे, रहे एक के एक।।67।।

प्राण, नयन, मन श्रवण, तन, अर्पण कौं अकुलात।
पे साजन नहिं ढ़रत इत, जीवन बीत्यौ जात।।68।।

का योंही रहि जायगी, प्राण समर्पण टेक?।
मो ललाट की रेख तू, कहुरी कछु तौ नेक।।69।।

कौन पूर्व कृत करम में, आड़े आए आज।
जो न पधारत प्रेम-धन, अपने जन के काज।।70।।