विष सा लगता है प्रथम, अमृत सा परिणाम।
होता बुद्धि प्रसाद से, सुख सात्विक है नाम।।41।।
विष ही विष परिणाम है, आदि होय या अन्त।
उसे तामसी सुख कहै, बुद्धिमान सब सन्त।।42।।
क्षत्रिय के लो कर्म अब, सभी धनंजय जान।
शूर वीरता तेज अरु, धैर्य चतुर बलवान।।43।।
दानी ईश्वर भक्त हो, रखता स्वामी भाव।
मुख मोड़े नहिं युद्ध से, भरा युद्ध का चाव।।44।।
जन पालक हो हृदय से, प्रजा पुत्र ले जान।
स्वाभाविक ये कर्म हैं, क्षत्रिय के धीमान।।45।।
शुद्ध बुद्धि से युक्त हो, धरि धीरज मतिधीर।
करै निमंत्रित स्वयं को, त्याग विषय सब वीर।।46।।
राग द्वेष को नाश कर, करै बास एकान्त।
अल्पाहारी रह सदा, मन को रक्खे शान्त।।47।।
संयम रखे देह का, वाणी पर अधिकार।
ध्यान योग में निरत जो, रहै विराग विचार।।48।।
अहंकार बल दर्प को, मन से देवै त्याग।
काम क्रोध संग्रह सभी, छोड़ देय सब राग।।49।।
तब कर सकता प्राप्त नर, सत्य सच्चिदानन्द।
प्राप्त ब्रह्म की हो तभी, छूटै माया फन्द।।50।।
जन ‘किशोर’ को कृष्णजी, दे दो गीता ज्ञान।
और भक्ति अन पायिनी, केशव कृपा निधान।।51।।