भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
प्रभुजी! मैं जो चह्यौ न पायो / स्वामी सनातनदेव
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:22, 7 जनवरी 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=स्वामी सनातनदेव |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पन्ना बनाया)
राग टंकश्री, तीन ताल 16.8.1974
प्रभुजी! मैं जो चह्यौ न पायो।
भाँति-भाँति सों कछु दै-लै तुम दूरहि तें टरकायो॥
मैं तो प्रीति-भिखारी प्यारे! बड़ी आस लै आयो।
तुमने जो कछु दियो प्रानधन! सो सब सीस चढ़ायो॥1॥
पै का करों, न मानत है मन, अबहुँ न निज धन पायो।
हों अपात्र, पै पात्र भये पै कहा तिहारो दायो॥2॥
जैसो पात्र-अपात्र प्रानधन! तुमही मोहिं बनायो।
तुमही दई ललक रति-रस की, अब क्यों जीय चुरायो॥3॥
अपनी दई ललक पूरी करि करहु मोर मनभायो।
मेरी ओर न देखि दयानिधि! कीजिय अपुन उपायो॥4॥
प्रीति-भिखारी कियो मोहिं तुम, भीख लैन मैं आयो।
तुम बिनु याको कोउ न दाता, यासों रारि बढ़ायो॥5॥
शब्दार्थ
<references/>