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करी मेरे मोहन की होय / स्वामी सनातनदेव

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आनुकूल्य ॥194॥
राग सारंग, तीन ताल 25.6.1974

करी मेरे मोहन को होय।
जो-जो चहें प्रानधन वाहि न करै अन्यथा कोय॥
उनकी कृपा पंगु गिरि लंघै, अन्ध सकै सब जोय।
मूक होय वाचाल, मूढ हूँ पलमें पण्डित होय॥1॥
करि-करि थकै, न बनै काज कछु, वृथा मरै जन रोय।
मनमोहन जो चहै, बिना स्रम आपुहि सो सब होय॥2॥
हित-अनहित हूँ जन का जानै, स्याम करै हित सोय।
यासों छाँड़ि सकल चिन्ता क्यों स्याम-सरन नहिं होय॥3॥
त्यागि अपनुपो होय स्याम को, रहे कृपा-पथ जोय।
तापै कृपासिन्धु की करुना स्वयं अपूरब होय॥4॥
हौं तो सदा स्याम को चेरो, अपनो लगत न कोय।
चहों न अपने मन की अब कछु, उनके मन की होय॥5॥