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भजन बिनु बाद हि जीवन जात / स्वामी सनातनदेव

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राग देवगिरि, तीन ताल 4.8.1974

भजन विनु बादहि जीवन जात।
कहा भयो रिधि-सिधि हूँ पाये, जो हिय हरि कों नाहिं ललात॥
धन-जोबन कछु काम न आवहिं जब तनु तजि जम के घर जात।
है विद्या हूँ वृथा भार ही, जो न भजन में रुचि उपजात॥1॥
भयो लोक नायक हूँ जग में, पायक जन पै अति गरवात।
पै जब लगत चपेट काल की, मुखसों निकसत एक न बात॥2॥
जिन परिजन के मोह-पास परि विकरम हूँ न करत सकुचात।
वे ही जाय मसान जारिहैं, आगे कोऊ संग न जात॥3॥
है यह जनम सफल तब ही जब यासों उर हरि-रस सरसात।
करि विवेक छूटै भव-बन्धन उर प्रीतम की रति उमहात॥4॥
तनसों होय जगत की सेवा, काहू को न अहित उर आत।
हरि की छकनि छकै यह मन तो नर-तनु सुर-तनुसों अधिकात॥5॥