भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कहा कहों कछु समुझि परै ना / स्वामी सनातनदेव

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:03, 9 जनवरी 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=स्वामी सनातनदेव |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

राग विलावल, ताल धमार 8.8.1974

कहा कहों कछु समुझि परै ना।
यह मन भयो काठ-सो कर्रो, समुझाये हूँ समुझि सकै ना॥
मैं तो चहों एक तुव पद-रति, पै यह मेरी एक सुनै ना।
भटकत रहत वृथा इत-उत ही, मेरे रोके नैंकु रुकै ना॥1॥
किये अनेकन साधन प्यारे! तदपि काहु सों काज सरै ना।
यह मन अबहुँ जाय विषयन में, तिन के विषसों नैंकु डरै ना॥2॥
यद्यपि अपनो है न कतहुँ कोउ, तदपि तुमहुँ में रति उपजै ना।
सबसों नातों छोरि-छोरि हूँ ह्वै अनन्य यह तुमहिं भजै ना॥3॥
कहा करों हार्यौ सबही विधि, कतहुँ कोउ अवलम्ब मिलै ना।
कोटिनहूँ उपाय कीजिए वरु तुव रति बिनु यह हियो खिलै ना॥4॥
पै यह रति तुम बिनु मनमोहन! हाट-बाट में कतहुँ मिलै ना।
तुव करुना बिनु यह असमंजस कैसेहुँ करुनासिन्धु टरै ना॥5॥
हौं अति दीन-हीन, पै प्यारे! तुम बिनु कैसेहुँ मोहिं सरै ना।
बिना मोल ही देह दयानिधि! तुमहिं देत कछु कसर परै ना॥6॥