हरि को नाम भावसों भज रे! / स्वामी सनातनदेव
राग केदार, तीन ताल 4.9.1974
हरि को नाम भावसों भज रे!
कहा धर्यौ अग-जग प्रपंच में, ताकी चिन्ता तज रे!
स्वारथ ही साध्यौ रचि-पचि तें, तासों अब तू लज रे!
चल प्रीतम के देस चावसों, सब तजि ता हित सज रे!॥1॥
सपने से हैं देह-गेह ये, इनकी ममता तज रे!
केवल निज प्रीतम को ही ह्वै, तिन की रति में रज रे!॥2॥
निज पर को सब भाव त्यागि तू, मोह-द्रोह सों बच रे!
सब में निरखि-निरखि निज प्रीतम, सब के हित में पच रे!॥3॥
यह जग है प्रीतम की बगिया, सुखसों यहाँ विचर रे!
पै याकी ममता में परि तू प्रीतमकों न बिसरि रे!॥4॥
सब में समता की थिरता करि, ममता हरि में कर रे!
उनही की रति में रचि-पचि नित कालहुँ सों जनि डर रे!॥5॥
हैं कालहुँ के काल प्रानधन, फिर काको का डर रे!
उनको प्रेम-पियूष पान करि हो जा अजर-अमर रे!॥6॥