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मेरो मन मानत मौज फकीरीमें / स्वामी सनातनदेव

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तर्ज माँड़, कहरवा 4.9.1974

मेरो मन मानत मौज फकीरी में।
जो सुख पावै भजन-भाव में, मिलत न कबहुँ अमीरी में॥
रह्यौ न लेनो-देनो जग को, रहनो सदा सबरी<ref>सब्र, सन्तोष</ref> में।
नेह- नगर में वास निरन्तर प्रिय की सदा हजूरी में॥1॥
निज पर को कोउ भाव न भासै, तीनों लोक जगीरी में।
सब ही अपने सबहि विराने, बात अनोखी पीरी में॥2॥
प्रीतम ही सों नेह निरन्तर, और न कुटुम कबीली में।
जो मिल जाय मस्त वाही में, जाय न दिल दिलगीरी<ref>उदासी</ref> में॥3॥
प्रीतम ही में रहनो-सहनो, और न महल-हवेली में।
सबसों मिलिवो-जुलिवो तो हूँ परिवो काहु न जेली<ref>जेल</ref> में॥4॥
सबको होय न बँधहि काहुसों-ऐसो भाव जमीरी<ref> दिल में</ref> में।
सदा अकिंचन, तो हूँ मन में रहै सदैव अमीरी में॥5॥
मन में रहें सदा मनमोहन और न काहू सीरी<ref>साझे में</ref> में।
प्यारे को प्यारो ह्वै पावै सबको प्यार फकीरी में॥6॥

शब्दार्थ
<references/>