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प्यारे! अद्भुत खेल दिखाया / स्वामी सनातनदेव

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तर्ज गजल, कहरवा 29.9.1974

प्यारे! अद्भुत खेल दिखाया।
जब ढूँढ़ा तो तुम को प्रियतम! निज से पृथक न पाया॥
तुम ही खेल खिलाड़ी तुम ही, भेद तुम्हारी माया।
निजता में ही निज को प्यारे! तुमने सब छिपाया॥1॥
निजता का ही सकल पसारा, निज को ही दिखलाया।
जब निज का दर्शन पाया तो निज पर भेद भुलाया॥2॥
माया मिटी भेद भी छूटा, रही न काया-छाया।
तुम ही तुम रह गये प्राणधन! तुम में सभी समाया॥3।
रहा न रोक-शोक फिर कुछ भी मिटी भोग की माया।
‘मैं’ न रहा, फिर ‘मैं’ भी प्यारे! तुम में तुरत विलाया॥4॥
मिटी भेद की भ्रान्ति शान्ति का अद्भुत रस सरसाया।
हुई शान्ति की भ्रान्ति शान्त तो रति-रस को अकुलाया॥5॥
उस आकुलता ने मनमोहन! जब तुमको दरशाया-
तो फिर दरश-परश के रस में रस ही रस सरसाया॥6॥
सचमुच तो रस ही हो प्रिय! तुम, यह रस-रास रचाया।
तुमसे मेल मिला तो तुमसे पृथक न कुछ भी पाया॥7॥