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जाको वेदहुँ भेद न पायो / स्वामी सनातनदेव
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राग तोडी, चौताल 13.8.1974
जाको वेदहुँ भेद न पायो।
सो सिसु ह्वै व्रज-वल्लव<ref>गोप</ref> वालन के संग खेलि-खेलि न अघायो॥
किये केलि-कौतुक अति अद्भुत, खेलि-खेलि अति ही सचुपायो।
जीत्यौ कबहुँ आपु बालन सों, कबहुँ बालकन जीति खिझायो॥1॥
खीझहुँ में रीझहि तिन पाई, ऐसो को उदार तिन पायो।
ता करुनामय की करुनासों विगलित ह्वै को जन न सिहायो॥2॥
एक दिना खेलत-खेलत ही आपु हारि श्रीदाम जितायो।
घोड़ा वनि तब मनमोहन ने श्रीदामाकों पीठ चढ़ायो॥3॥
ऐसेहि हारि-हारि सचु मानत, भक्तन को नित मान बढ़ायो।
लखि-लखि अस उदारता हरि की चरन-सरन यह दीनहुँ आयो॥4॥
शब्दार्थ
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