भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुम अब उन्मुक्त हो... / भास्करानन्द झा भास्कर

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:19, 11 जनवरी 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=भास्करानन्द झा भास्कर |अनुवादक= |...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उन आंख़ों को
रुलाया है मैंने बहुत
मुझमें भी बहे हैं
बार-बार,
कई बार
अहर्निश
अनवरत अश्रुधार…
जिसमें है
तुम्हारी भी
भावनाओ का
एक अविरल प्रवाह...
भींग चुके हैं हम
धुल चुकी है
हमारी अंतरात्मा
शुद्ध,पवित्र
उठ चुका है मन
बहुत ऊपर
क्रुद्धता और क्षुब्धता से,
क्रूर समय
सदैव रहा ही है
निर्दय और निर्मम!
और तुम भी
हर क्षण
निश दिन….
इस समय से कम नहीं...!
हां….
तुम अब
हर बंधन से,
मुझसे
स्वतंत्र और मुक्त हो
गगन में
उत्छृंखल पंछी सदृश्य
अनाबद्ध,
स्वच्छंद और उन्मुक्त हो…