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तुम अब उन्मुक्त हो... / भास्करानन्द झा भास्कर
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उन आंख़ों को
रुलाया है मैंने बहुत
मुझमें भी बहे हैं
बार-बार,
कई बार
अहर्निश
अनवरत अश्रुधार…
जिसमें है
तुम्हारी भी
भावनाओ का
एक अविरल प्रवाह...
भींग चुके हैं हम
धुल चुकी है
हमारी अंतरात्मा
शुद्ध,पवित्र
उठ चुका है मन
बहुत ऊपर
क्रुद्धता और क्षुब्धता से,
क्रूर समय
सदैव रहा ही है
निर्दय और निर्मम!
और तुम भी
हर क्षण
निश दिन….
इस समय से कम नहीं...!
हां….
तुम अब
हर बंधन से,
मुझसे
स्वतंत्र और मुक्त हो
गगन में
उत्छृंखल पंछी सदृश्य
अनाबद्ध,
स्वच्छंद और उन्मुक्त हो…