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प्रेम का अदृष्य घरौंदा / भास्करानन्द झा भास्कर
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रेगिस्तान है जिन्दगी
मैं जानता हूं
फ़िर भी
बालू की ढेर पर
प्रेम का घरौंदा बनाता हूं
टूटता है…
फ़िर भी बनाता हूं
क्योंकि
मैं प्रेमी हूं अमूर्त
प्रेम का,
निर्माण का
समर्पण और सम्मान का..!
मेरी अनुभूति प्रेमिका है
प्रेमालाप-प्रलाप है
खूद रुठता हूं,
खुद मनाता हूं
दर्द होता है
सहलाता हूं
मन को बहलाता हूं
खूब निरा प्रेम करता हूं,
गैर-मौजूदगी उसकी
कभी कभी
आंधियां भी लाती हैं
उन रेतों की ढेर पर
मेरा घरौंदा टूटता है
पर मैं जुटता हूं
बार- बार उठ कर
फ़िर भी
मैं बनाये जाता हूं
प्रेम का अदृष्य घरौंदा..!
विस्मय विषाद से दूर
आनंद मग्न
विकर्षण से अज्ञात
आकर्षणरत
विरागहीन अनुराग संग
प्रेम का अदृष्य घरौंदा...