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शून्यमा शून्य सरी / लक्ष्मीप्रसाद देवकोटा

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संसार रुपी सुख स्वर्गभित्र,
रमें रमाएँ लिइ भित्र चित्र।
सारा भयो त्यो मरुभूमि तुल्य,
रातै परे झैं अब बुझ्छु बल्ल।
 
रहेछ संसार निशा समान,
आएन ज्यूँदै रहँदा नि ज्ञान।
आखिर रहेछ श्रीकृष्ण एक,
न भक्ति भो, ज्ञान, नभो विवेक।
 
महामरुमा कण झैं म तातो,
जलेर मर्दो बिन आश लाटो।
सुकी रहेको तरु झैं छु खाली,
चिताग्नि तापी जल डाल्न फाली।

संस्कार आफ्नो सब नै गुमाएँ,
म शून्यमा शून्य सरी बिलाएँ।
जन्मेँ म यो स्वर्गविषे पलाएँ,
आखीर भै खाक त्यसै बिलाएँ।