बाल काण्ड / भाग 3 / रामचंद्रिका / केशवदास
मोदक छंद
राजा- मैं जो कह्यो ऋषि देन, सो लीजिय।
काल करो, हठ भूलि न कीजिय।।
प्राण दिये, धन जाहिं दिये सब।
केशव राम न जाहिं दिये अब।।49।।
ऋषि-राम तज्यो धन धाम तज्यो सब।
नारि तली, सुत सोच तज्यो सब।
नारि तजी, सुत सोच तज्यो तब।।
आपनपौ जो तज्यो जगबंद है।
सत्य न एक तज्यो हरिचंद है।।50।।
(दोहा) जान्यो विश्वामित्र के, कोप बढ्यो उर आइ।
राज दशरथ सों कह्यो वचन वशिष्ठ बनाई।।51।।
षट्पद
वशिष्ठ-इनहीं तपतेज यज्ञ की रक्षा करिहै।
इनहीं के तपतेज अकल राक्षस बल हरिहैं।
इनहीं के तपतेज बढ़िहै तन तूरन।
इनहीं के तपतेज होहिंगै मंगल पूरन।
कहि केशव जैयुत आइहैं इनहीं के तपतेज घर।
नृप बेगि राग लक्ष्मण दोऊ सौंपौ विश्वामित्र कर।।52।।
(दोहा) नृप पै वचन वशिष्ठ कैसे मेट्यो जाई।
सौंप्यौ विश्वामित्र कर, रामचंद्र अकुलाई।।53।।
पंकजवाटिका छंद
राम चलत नृप के युग लोचन।
वारिभरित भै वारिद रोचन।
पाथन परि ऋषि के सजि मौनहिं।
केशव उठि गै भीतर भौनहिं।।54।।
चामर छंद
वेद मंत्र तंत्र शोधि, अस्त्र दै भले
रामचंद्र लक्ष्मणै सो विप्र छिप लै चले।
लोभ छोह मोह गर्व काम कामना हती।
नींद, भूख, प्यास, त्रास, वासना सबै गयी।।55।।
निशिपालिका छंद
कामवन राम सब बास तरु देखियो।
नैन सुखदैन मन मैनमय लेखियो।
ईश जहँ कामतनु कैं अतनु डारियो।
छोड़ि वह यज्ञथल केशव निहारियो।।56।।
(दोहा) रामचंद्र लक्ष्मण सहित, तन मन अति सुख पाइ।
देख्यो विश्वामित्र को, परम तपोवन जाइ।।57।।
तपोवन-वर्णन
षट्पद
तरु तालीस तमाल ताल हिंताल मनोहर।
मंजुल बंजुल तिलक लकुच कुल नारिकेर वर।
एला ललित लवंग संग पुंगीफल सोहैं।
सारी शुक कुल कलित चित्त कोकिल अलि मोहैं।
शुभ राजहंस कलहंस कुल नाचत मत्त मयूरगन।
अति प्रफुलित फलित सदा रहै केशवदास विचित्र बन।।58।।
सुप्रिया छंद
कहुँ द्विजगण मिलि सुख श्रुति पढ़हीं।
कहुँ हरि हरि हर हर रट रटहीं।
कहुँ मृगपति मृगशिशु पथ पियहीं।
कहुँ मुनिगण चितवत हरि हियहों।।59।।
नाराच छंद
विचारमान ब्रह्म, देव अर्चमान मानिए।
अदीयमान दुःख, सुःख दीयमान जानिए।
अदंडमान दीन, गर्व दंडमान भेदवै।
अपट्ठमान पापगं्रथ, पट्ठमान वेदवै।।60।।
चंचला
रक्षिबे को यज्ञस्थल बैठे वीर सावधान।
होन लागे होम के जहाँ तहाँ सबै विधान।
भीम भाँति ताडुका सो भंग लागि कर्न आइ।
बान तानि, राम पै न नारि जानि छाँड़ि जाइ।।61।।
ऋषि- सो. कर्म करति यह घोर, विप्रन को सहू दिशा।
मत्त सहज गज जोर, नारी जानि न छाँड़िए।।62।।
(दोहा) द्विजदोषी न विचारिए, कहा पुरुष कह नारि।
राम विराम न कीजिए, बाम ताडुका तारि।।63।।
ताड़का-सुबाहु बध
मरहट्टा छंद
यह सुनि गुरुबानी धनु गुन तानी जानी द्विज दुखदानि।
ताडुवा सँहारी दारुण भारी नारी अति बल जानि।।
मारीच बिडार्îो जलधि उतारîो मारîो सबल सुबाहु।
देवनि गुन पर्ख्यो पुष्पनि बख्यौं हर्ख्यो अति सुरनाहु।।64।।
(दोहा) पूरण यज्ञ भयो जहीं, जान्यो विश्वामित्र।
धनुषयज्ञ की शुभ कथा, लागे सुनन विचित्र।।65।।
विप्र-कथित स्वयंवर-कथा
खंडपरस (महादेव) को सोभिजै, सभामध्य कोदंड।
मानहुँ शेष अशेष धर, धरनहार बरिवंड।।66।।
सवैया
सोभित मंचन को अवली गजदंतमयी छवि उज्ज्वल छाई।
ईश मनौ वसुधा में सुधारि सुधाधरमंडल मंडि जोन्हाई।
तामहँ केशवदास विराजत राजकुमार सबै सुखदाई।
देवन स्यों (सहित) देवसभा सुभ सीयस्वयंवर देखन आई।।67।।
(सोरठा) सभामध्य गुणग्राम, बंदी सुत द्वै सोभहीं।
सुमति विमति यह नाम, राजन को वर्णन करैं।।68।।
(दोहा) सुमति-को यह निरखत आपनी, पुलकित बाहु विशाल।
सुरभि (वसंत) स्वयंवर जनु करी, मुकुलित शाख रसाल।।69।।
(सोरठा) विमति-जेहिं यश परिमल मत्त, चंचरीक-चारण फिरत।
दिसि विदसन अनुरक्त, सो तौ मलिकापीड़नृप (मलिक नामक जाति अथवा पहाड़ी प्रदेश का शिरोभूषण राजा; मल्लिका पुष्प से निर्मित शिरोभूषण है जिसका वह राजा।)।।70।।
(दोहा) सुमति-जाके सुखमुख (सहज) वास ते, वासित होत दिगंत।
सो पुनि कहु यह कौन नृप, शोभित शोभ अनंत।71।।
(सोरठा) विमति-राजराज (कुबेर)दिगबाम, भाल लाल लोभी सदा।
अति प्रसिद्ध जग नाम, कासमीर (काशमीर देश; केसर) को तिलक यह।।72।।