भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अरण्य काण्ड / भाग 3 / रामचंद्रिका / केशवदास

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:28, 15 जनवरी 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=केशवदास |अनुवादक= |संग्रह=रामचंद्...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

शूर्पणखा- नृप रावण की भगिनी गनि मोकहँ।
जिनकी ठकुराइति तीनहु लोकहँ।।
सुनिजै दुखमोचन पंकज लोचन।
अब मोहिं करो पतिनी मन रोचन।।35।।

तोमर छंद

तब यों कह्यो हँसि राम। अब मोहि जानि सबाम।।
तिय जाय लक्ष्मण देखि। सम रूप यौवन लेखि।।36।।

दोधक छंद
 
शूर्पणखा- राम सहोदर मो तन देखौ।
रावण की भगिनी जिय लेखौ।।
राजकुमार रमौ सँग मेरे।
होहिं सबै सुख संपति तेरे।।37।।
लक्ष्मण- वै प्रभु हौं जन जानि सदाई।
दासि भये महँ कौनि बड़ाई।।
जौ भजिए प्रभु तौ प्रभुताइ्र।
दासि भये उपहास सदाई।।38।।

मल्लिका छंद

हास के विलास जानि। दीह मानखंड (अपमान) मानि।।
भक्षिबे को चित्त चाहि। सासुहे भई सियाहि।।39।।

तोमर छंद

तब रामचंद्र प्रवीन। हँसि बंधु त्यों दृग दीन।।
गुनि दुष्टता सह लीन। श्रुति नासिका बिनु कीन।।40।।
(दोहा) सोन छिंछि छूटत वदन, भीम भयी तेहि काल।
मानो कृत्या कुटिल युत, पावक-ज्वाल कराल।।41।।

खरदूषण वध

तोटक छंद

गई शूर्पणखा खरदूषण पै। सजि ल्यायी तिन्हें जगभूषण पै।
शर एक अनेक ते दूर किये। रवि के कर ज्यौं तम पुंज पियै।।42।।

मनोरमा छंद

वृष के खरदूषण (सूर्य) ज्यों खरदूषण।
तब दूरि किये रवि के कुल-भूषण।
गदशत्रु (वैद्य) त्रिदोष ज्यौं दूरि करै वर।
त्रिशिरा शिर त्यौं रघुनंदन के शर।।43।।
भजि शूर्पणखा गइ रावण पै तब।
त्रिशिरा खरदूषण नाश कहे सब।।
तब शूर्पणखा मुख बात सबै सुनि।
उठि रावण गो सु-मरीच जहाँ मुनि।।44।।

रावण मारीच संवाद

मनोरमा छंद

रावण बात कही सिगरी त्यौं।
शूर्पणखाहिं विरूप करी ज्यौं।।
रावण- एकहि राम अनेक सँहारे।
दूषण स्यों त्रिशिरा खर मारे।।45।।
तू अब होहि सहायक मेरौ।
हौं बहुते गुण मानिहौ तेरौ।।
जा हरि सीतहि ल्यावन पैहैं।
वै भ्रमि शोकन ही मरि जैहैं।।46।।
मारीच- रामहिं मानुष कै जनि जानौ।
पूरण चौदह लोक बखानौ।।
जाहु जहाँ तिय लै सु न देखौं।
हौं हरि को जलहूँ थल लेखौं।।47।।

सुंदरि छंद

रावण- तू अब मोहि सिखावत है शठ।
मैं वश जक्त कियो हठ ही हठ।।
वेगि चलै अब देहि न ऊतरु।
देव सबै जन एक नहीं हरु।।48।।
(दोहा) जाँचि चल्यों मारीच मन, मरण दुहूँ विधि आसु।
रावण के कर नरक है; हरि कर हरिपुर वासि।।49।।

सीता राम मंत्रणा

सुंदरी छंद

राम- राजसुता इक मंत्र सुनौ अब।
चाहत हौं भव भार हरîो सब।।
पावक मैं, निज देहहिं राखहु।
छाय सरीर मृगै अभिलाषहु।।50।।

चामर छंद

आइयौ कुरंग एक चारु हेम हीर कौ।
जानकी समेत चित्त मोहि राम वीर कौ।
राजपुत्रिका समीप साधु बंधु राखिकै।
हाथ चाप-बाण लै गये गिरीश नाँखिकै।।51।।

मारीच वध

(दोहा) रघुनायक जब हीं हन्यो, सायक शठ मारीच।
‘हा लक्ष्मण’ यह कहि गिरेउ, श्रीपति के स्वर नीच।।52।।

निशिपालिका छंद

सीता- राजतनया तबहिं बोल सुनि यों कह्यौ।
जाहु चलि देवर न जाते हम पै रह्यौ।
हेममृग होहि नहिं रैनिचर जानिए।
दीन स्वर राम केहि भाँति मुख आनिए।।53।।
लक्ष्मण- शोच अति पोच उर मोच दुख दानिए।
मातु यह बात अवदात, (सत्य, कपट रहित) मम मानिए।
रैनिचर छउ बहु भाँति अभिलाषहीं।
दीन स्वर राम कबहूँ न मुख भाषहीं।।54।।

चंचला छंद

पक्षिराज यज्ञराज प्रेतराज यातुधान।
देवता अदेवता नृदेवता जिते जहान।।
पर्वतारि अर्ब खर्ब सर्व सर्वथा बखानि।
कोटि कोटि सूरचंद्र रामचंद्र दास मानि।।55।।

चामर छंद

राजपुत्रिका कह्यो, सो और को कहै; सुनै।
कान मूँदि बार बार, शीश बीसधा धुनै।।
चापकीय (धनुष से बनाई हुई) रेख खाँचि, देव-साखि दै चले।
नाँघिहैं, ते भस्म होहिं, जीव जे बुरे भले।।56।।

सीता हरण

छिद्र ताकि छुद्रराज लकनाथ आइयो।
भिच्क्षुजानि जानकी सो भीख को बोलाइयो।।
सोच पोच मोचिकै सकोच भीम भेख को।
अंतरिच्छही करी ज्यों राहु चंद्ररेख को।।57।।

दंडक छंद

धूमपुर के निकेत मानो धूमकेतु की,
शिखा की धूमयोनि मध्य रेखा सुधा धाम की।
चित्त की सी पुत्रिका की रूरे बगरूरे माहिं,
बर छोड़ाइ लई कामिनि की काम की।
पाखँड की श्रद्धा की मठेश बस एकादसी,
लीन्हीं कै स्वपचराज साखा सुद्ध साम की।
केशव अदृष्ट साथ जीवजोति जैसी, तैसी
लंकनाथ हाथ परी छाया जाया राम की।।58।।

सीता विलाप

हरिलीला छंद

सीता- हा राम हा रमन हा रघुनाथ धीर।
लंकाधिनाथ बस जानहु मोहि वीर
हा पुत्र लक्ष्मण छोड़ावहु वेगि मोहिं।
मार्तंडवंश यश की सब लाज तोहिं।।59।।
पक्षी जटायु यह बात सुनत धाइ।
रोक्यो तुरंत बल रावण दुष्ट जाइ।।
कीन्हौ प्रचंड रथ छत्र ध्वजा विहीन।
छोड़ो विपक्षि तब भी जब पक्षहीन।।60।।

संयुता छंद

दशकंठ सीतहि लै चल्यो। अति वृद्ध गीधहि यों दल्यो।।
चित जानकी अधकों कियो। हरि तीनिद्वै अवलोकियो।।61।।
पद-पù की शुभ घूँघरी। मणिनील हाटक सो जरी।
जुत उत्तरीय (ओढ़नी) विचार कै। शुभ डारि दीन गठारि कै।।62।।
(दोहा) सीता के पद पù कौ, नूपुर पट जनि जानु।
मनहुँ करए सुग्रीव घर, राम-श्री-प्रस्थानु।।63।।