Last modified on 18 जनवरी 2015, at 20:48

काफ़िर गेसू वालों की रात बसर यूँ होती है / साग़र निज़ामी

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:48, 18 जनवरी 2015 का अवतरण (Sharda suman ने काफ़िर गेसू वालों की रात बसर यूँ होती है / सागर निज़ामी पर पुनर्निर्देश छोड़े बिना उसे [[...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

काफ़िर गेसू वालों की रात बसर यूँ होती है।
हुस्न हिफाज़त करता है और जवानी सोती है।

मुझ में तुझ में फ़र्क नहीं, तुझमे मुझमे फ़र्क है ये,
तू दुनिया पर हँसता है दुनिया मुझ पर हँसती है।

सब्रो-सुकूं दो दरिया हैं भरते-भरते भरते हैं,
तस्कीं दिल की बारिश है होते-होते होती है।

जीने में क्या राहत थी, मरने में तकलीफ़ है क्या,
तब दुनिया क्यों हँसती थी, अब दुनिया क्यों रोती है।

दिल को तो तशखीश हुई चारागरों से पूछूँगा,
दिल जब धक-धक करता है वो हालत क्या होती है।

रात के आँसू ऐ ‘सागर’ फूलों से भर जाते हैं,
सुबहे चमन इस पानी से कलियों का मुँह धोती है।