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ओस के संवेद्य मौनाकाश में हो / केदारनाथ अग्रवाल

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ओस के संवेद्य मौनाकाश में ही

या सुगन्धों की सुखावह साँस में ही,

हो न हो यह ज़िन्दगी मेरी

कहीं अटकी हुई है ।

छोड़ता हूँ--छोड़ती मुझ को नहीं

तलवार मेरी ।

बह रही है धार मेरी

उठ रही ललकार मेरी ।