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रेल / त्रिलोक सिंह ठकुरेला

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सबको मंजिल तक ले जाती,
सबको घर पहुँचाती।
रेल दूर रहने वालों को
आपस में मिलवाती॥

सिगनल हरा देख चल देती,
लाल देख रुक जाती।
सीटी बजा बुलाती सबको
सरपट दौड़ लगाती ॥

जब अपनी ही धुन में चलती
कितनी प्यारी लगती।
रेल देख कर सबके मन में
नयी लगन सी जगती ॥

रेल सभी से कहती जैसे ­
रुको न, दौड़ लगाओ।
कठिन नहीं है कोई मंजिल,
मेहनत से सब पाओ॥