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हिन्दी: एक परिचय / राजुल मेहरोत्रा

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हिन्दी: एक परिचय

सम्पूर्ण विश्व की सभी भाषाएँ बारह वर्गोँ मेँ विभक्त हैँ, जिनमेँ एक वर्ग का नाम ’भारोपीय कुल’ है, इसके दो समूह हैँ - केन्टुम और शतम। शतम समूह मे ईरानी और आर्यवर्त्ती भाषाएँ मुख्य है। आर्यवर्त्ती भाषाओं मेँ उत्तर भारत की अनेक भाषाएँ हैँ, जिनमेँ हिन्दी एक प्रधान भाषा है।

हिन्दी जिस भाषा-धारा के विशिष्ट दैशिक और कालिक रूप का नाम है, उसका प्राचीनतम रूप सँस्कृत है। सँस्कृत का काल १५०० ई.पू. से ५०० ई.पू. तक माना जाता है। सँस्कृत भाषा के दो रूप मिलते हैँ:- एक वैदिक और दूसरा लौकिक या सँस्कृत जिसमेँ वाल्मीकि, व्यास, भास, अश्वघोष, कालिदास, माघ आदि की रचनाऎं हैं। इस संस्कृत काल के अन्त तक तीन क्षेत्रीय बोलियाँ-पश्चिमोत्तरी, मध्यदेशी तथा पूर्वी विकसित हो चुकी थीँ। ५०० ई.पू. के बाद संस्कृतकालीन बोली विकसित होकर पालि भाषा बन गई। इसका काल ५०० ई.पू. से पहली ईसवी तक माना जाता है। इस काल मेँ एक और क्षेत्रीय बोली -दक्षिणी- का जन्म हुआ। एक ईसवी से ५०० ई. तक का काल प्राकृत भाषा का माना जाता है। इस काल की क्षेत्रीय बोलियाँ थीं -शौरसेनी, पैशाची, व्राचड़, महाराष्ट्री, मागधी और अर्धमागधी। ५०० ई. से १००० ई. तक का काल अपभ्रंश का है।

आधुनिक भाषाओं का जन्म अपभ्रँश के विभिन्न क्षेत्रीय रूपोँ से हुआ है, यथा-

अपभ्रँश भाषाएँ
शौरसेनी पश्चिमी हिन्दी, राजस्थानी, पहाड़ी, गुजराती
पैशाची लहँदा, पँजाबी
व्राचड़ सिन्धी
महाराष्ट्री मराठी
मागधी बिहारी, बाँग्ला, उड़िया, असमिया
अर्धमागधी पूर्वी हिन्दी

हिन्दी भाषा का जन्म और विकास अपभ्रंश के शौरसेनी, मागधी और अर्धमागधी रूपोँ से हुआ है। भारत मेँ हिन्दी भाषा का क्षेत्र उत्तर-प्रदेश, मध्य-प्रदेश, बिहार, राजस्थान, दिल्ली, हरियाना, हिमाचल-प्रदेश और पँजाब है। इस क्षेत्र मेँ हिन्दी की पाँच उपभाषाएँ और दस बोलियाँ हैँ।

उपभाषाएँ बोलियाँ
पश्चिमी हिन्दी खड़ीबोली, ब्रजभाषा, हरियाणी, बुन्देली, कन्नौजी
पूर्वी हिन्दी अवधी, बघेली, छत्तीसगढ़ी
राजस्थानी मारवाड़ी, जयपुरी, मेवाती, मालवी
पहाड़ी कुमाउंनी, गढ़वाली
मागधी बिहारी, बाँग्ला, उड़िया, असमिया
बिहारी भोजपुरी, मगही, मैथिली

पाँच उपभाषाओँ और दस बोलियोँ के क्षेत्र मेँ खड़ीबोली को सम्पर्क-भाषा की प्रतिष्ठा प्राप्त हुई है। खड़ीबोली सभी आंचलिक भाषाओँ की साँझी भाषा के रूप मेँ विकसित हुई। ’खड़ीबोली’ शब्द का प्रयोग लल्लूलाल और सदलमिश्र के निबन्धोँ मेँ मिलता है। खड़ीबोली को ’हिन्दी’ नाम से भारत की राजभाषा (एवं मातृभाषा) के पद पर प्रतिष्ठित किया गया है, जिसकी लिपि देवनागरी है।

हिन्दी शब्द की व्युत्पत्ति

जब फारसी भाषा-भाषियोँ का सम्पर्क भारत के सिन्धु प्रदेश से हुआ तो सिन्धु और सिन्धी फारसी मेँ हिन्दु और हिन्दी हो गये। ’स’ की ध्वनि फारसी मेँ ’ह’ हो जाती है। ’हिन्द’ शब्द फारसी भाषा का ही है। हिन्दी का अर्थ है - हिन्द से सम्बन्ध रखने वाला। कालान्तर मेँ ’हिन्दी’ तथा ’हिन्दोस्तानी’ सम्स्त भारतवासियोँ एवँ उनकी भाषा के रूप मेँ प्रयुक्त होने लगा।

मध्यकाल मेँ फिरदौसी, अलबरूनी तथा अमीरखुसरो आदि ने ’हिन्दी’ शब्द का व्यापक अर्थ में प्रयोग किया है। पंचतँत्र के ईरानी अनुवाद की भूमिका मेँ लिखा है ’यह अनुवाद ज़बाने-हिन्दी से किया गया’। हिन्दी के मध्यकालीन कवियोँ - कबीर, जायसी, सूरदास, तुलसीदास आदि ने हिन्दी के लिये भाखा (भाषा) शब्द का प्रयोग किया है। भाषा शब्द के प्रयोग की परम्परा १९वीँ शताब्दी के आरम्भ तक मिलती है। १८०२ मेँ लल्लूलालजी ’भाषा मुन्शी’ के पद पर नियुक्त थे।

हिन्दी के लिये ’हिन्दवी’ शब्द बहुत समय तक प्रचलित रहा। तेरहवीँ शदी मेँ औफ़ी तथा अमीरखुसरो ने इसका प्रयोग किया था। मुन्शी इंशाअल्ला खां ने ’रानी केतकी की कहानी’ हिन्दवी मेँ लिखी थी।

तुजके-बाबरी मेँ हिन्दुस्तानी शब्द का प्रयोग मिलता है। यह हिन्दी का ऎसा रूप है, जिसमें अरबी, फारसी, संस्कृत के प्रचलित शब्दोँ का प्रयोग किया गया है। इसे ठेठ हिन्दी भी कहते हैँ। अयोध्यासिंह उपाध्याय ने इसी भाषा मेँ ’ठेठ हिन्दी का ठाठ’ लिखा है। उन्होँने ’चोखे चौपदे’ तथा ’चुभते चौपदे’ पद्यग्रन्थ भी इसी भाषा मेँ लिखे हैँ।

दिल्ली से जो तुर्क शासक दक्षिण की ओर गए उन्होंने लोकभाषा हिन्दी को प्रश्रय दिया। वह दक्खिनी हिन्दी के नाम से प्रसिद्ध हुई। वास्तव मेँ दक्खिनी हिन्दी और खड़ीबोली मेँ बहुत निकटता है।

डा० श्यमसुन्दर दास का कथन है --- " हिन्दी उस बड़े भूभाग की भाषा समझी जाती है, जिसकी सीमा पश्चिम मेँ जैसलमेर, उत्तरपश्चिम मेँ अम्बाला, उत्तर मेँ शिमला से नेपाल के पहाड़ी प्रदेश तक, पूर्व मेँ भागलपुर, दक्षिण-पूर्व रायपुर तथा दक्षिण-पश्चिम मे खण्डवा तक पहुँचती है। जब दिल्ली-आगरा मे मुस्लिम प्रभुत्व स्थापित हो गया तो उन्होँने हिन्दी को ही मध्यप्रदेशीय भाषा के रूप स्वीकार कर लिया। उन्हेँ यही भाषा व्यापक रूप से राष्ट्र मेँ प्रयोग की जाती अनुभव हुई, इसलिये उन्होँने इसी भाषा को सबसे अधिक महत्त्व दिया।

हिन्दी का विकास

हिन्दी भाषा के कुछ व्याकरणिक रूप पालि मेँ मिलते हैँ। प्राकृतकाल मेँ उनकी सँख्या और भी अधिक है।अपभ्रंश काल मेँ ये रूप चालीस प्रतिशत से भी अधिक हैँ। हिन्दी भाषा का आरम्भ १००० ई. से माना जाता है। आदिकालीन हिन्दी मेँ मुख्यत: उन्हीँ ध्वनियोँ [स्वरोँ-व्यँजनोँ] का प्रयोग मिलता है जो अपभ्रँश मेँ प्रयुक्त होती थीँ। अपभ्रँश मेँ आठ स्वर थे--- अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ओ। ये मूल स्वर हैँ। हिन्दी मेँ दो नये स्वर ऎ, औ विकसित हो गये जो सँयुक्त स्वर थे तथा जिनका उच्चारण अए और अओ था। च, छ, ज, झ संस्कृत, पालि, प्राकृत और अपभ्रँश मेँ स्पर्श-व्यँजन थे, हिन्दी मेँ आकर ये स्पर्श-सँघर्शी हो गये। न, र, ल, स संस्कृत, पालि, प्राकृत और अपभ्रंश मेँ दन्त्य-ध्वनियाँ थे हिन्दी मेँ वत्सर्य हो गये। अपभ्रंश मेँ ड़, ढ़ व्यंञन नहीँ थे। इनका विकास हिन्दी मेँ हुआ है। न्ह, म्ह, ल्ह पहले सँयुक्त व्यँजन थे हिन्दी मेँ मूल व्यँजन हो गये। हिन्दी मेँ अन्य भाषाओँ के श्ब्दोँ के आगमन से कुछ नये सँयुक्त व्यँजन आ गये।

प्रारम्भ मेँ हिन्दी का व्याकरण [१०००-११०० ई.] तक अपभ्रंश के निकट था। १५०० ई. तक आते-आते हिन्दी अपने पैरों पर खड़ी हो गई। सहायक क्रियाओँ तथा परसर्गोँ [ कारक-चिन्होँ] का प्रयोग अधिक होने लगा। सँयोगात्मक रूपोँ का स्थान वियोगात्मक रूप लेते गये। नपुँसक लिँग का प्रयोग समाप्त हो गया। हिन्दी वाक्य रचना मेँ शब्द क्रम निश्चित होने लगा। भक्ति-आँदोलन का प्रारम्भ हो गया था। तत्सम शब्दावली बढ़ने लगी थी। पश्तो, फारसी तथा तुर्की भाषाओँ के शब्द हिन्दी मेँ आने लगे थे। इस काल के साहित्य मेँ डिँगल, मैथिली, दक्खिनी, अवधी, ब्रज तथा मिश्रित रूपोँ का प्रयोग मिलता है। इस युग के प्रमुख साहित्यकार --- गोरखनाथ, विद्यापति, नरपति नाल्ह, चंद बरदाई, कबीर आदि हैँ।

१५००ई. से १८०० ई. तक की अवधि मेँ हिन्दी मेँ पाँच नये व्यँजन आये - क़, ख़, ग़. ज़, फ़ । ये व्यंञन फा़रसी से आये हैँ। इस काल मेँ शब्दान्त का ’अ’ मूल व्यंञन के आने बाद लुप्त हो गया। अक्षरांत के ’अ’ का भी लोप होने लगा जैसे ’जपता’ का जप्ता हो गया। ’ह’ के पहले का ’अ’, ’ए’ उच्चारित होने लगा जैसे ’अहमद’ का ’एहमद’। इस काल मेँ हिन्दी के शब्द-भाण्डार मेँ अत्यधिक वृद्धि हुई। फ़ारसी, अरबी, पश्तो, तुर्की, पुर्तगाली, स्पेनी, फ्रांसीसी तथा अँग्रेजी के शब्द भी हिन्दी मेँ आ गये। इस काल मेँ धर्म की प्रधानता होने के कारण राम-स्थान की भाषा अवधी और कृष्ण-स्थान की भाषा ब्रज मेँ अधिकाँश साहित्य की रचना हुई। दक्खिनी, उर्दू, डिँगल, मैथिली और खड़ीबोली मेँ भी साहित्य-रचना हुई। इस काल के कुछ प्रमुख साहित्यकार - मलिक मोहम्मद जायसी, सूर, मीरा, तुलसी, केशव, बिहारी, भूषण, देव आदि हैँ।

१८०० ई. के पश्चात अँग्रेजी शब्दोँ के प्रचार के कारण कुछ नये सँयुक्त व्यँजन हिन्दी मेँ प्रयुक्त होने लगे। सँयुक्त स्वर ऎ,औ की स्थिति कुछ भिन्न हो गई। पश्चिमी हिन्दी क्षेत्र मेँ ये स्वर सामान्यत: मूल स्वर रूप मेँ उच्चरित होते हैँ। पूर्वी हिन्दी क्षेत्र मेँ ये सँयुक्त स्वर के रूप मेँ ही प्रयुक्त हो रहे हैँ। नैया, कौवा, वैयाकरण जैसे शब्दोँ मेँ, पश्चिमी तथा पूर्वी दोनो क्षेत्रोँ मेँ ऎ, औ का उच्चारण क्रमश: अइ, अउ रूप मेँ होता है। हिन्दी में उच्चारण मेँ कोई भी शब्द अकारान्त नहीँ बचा। ’व’ ध्वनि पहले द्वयोष्ठ रूप मेँ उच्चरित होती थी वह अब पश्चिमी क्षेत्र मेँ दन्तोष्ठय रूप मेँ उच्चरित होने लगी।

प्रेस, रेडियो, शिक्षा तथा व्याकरणिक विश्लेषण आदि के प्रभाव से हिन्दी व्याकरण कारूप स्थिर हो गया है। मध्यकाल मेँ हिन्दी वाक्य रचना फारसी से प्रभावित थी, इस काल में अँगेजी शिक्षा का प्रसार अधिक हुआ। इसका परिणाम यह हुआ कि हिन्दी भाषा वाक्य-रचना, मुहावरोँ तथा लोकोक्ति आदि के क्षेत्र मेँ अँगेजी से बहुत अधिक प्रभावित हुई है।

शब्द-भण्डार की दृष्टि से १८०० ई. से अबतक के काल को कई उपकालोँ मेँ विभाजित किया जा सकता है। १८०० से १८५० ई. तक तक का हिन्दी शब्द-भाण्डार वही था जो मध्यकाल के अंतिम चरण मेँ था। १८५० से १९०० ई. तक अंङेजी के और शब्दोँ के आने के अतिरिक्त आर्यसमाज के प्रचार प्रसार के कारण तत्सम शब्दोँ का प्रयोग बढ़ा और कुछ पुराने तद्भव शब्द परिनिष्ठित हिन्दी से निकल गये।

१९०० ई. के बाद द्विवेदी काल तथा छायावाद काल मेँ अनेक कारणोँ से तत्सम शब्दोँ का प्रयोग बढ़ना प्रारम्भ हो गया। प्रसाद, पंत और महादेवी वर्मा का पूरा साहित्य इस दृष्टि से दर्शनीय है। इसके बाद प्रगतिवादी आंदोलन के कारण तद्भव शब्दोँ के प्रयोग पुन: वृद्धि हुई। १९४७ ई. तक यही स्थिति रही। इसके बाद अनेक पुराने शब्द नये अर्थोँ मेँ प्रचलित हो गये जैसे ’सदन’ लोकसभा-राज्यसभा दोनो के लिये प्रयुक्त हो रहा है। क्षणिका, फिल्माना, घुसपैठिया जैसे बहुत से नये शब्दोँ का हिन्दी मेँ जन्म हो गया। साहित्य मेँ नाटक, उपन्यास, कहानी और कविता की भाषा बोलचाल के बहुत निकट है; उसमेँ अरबी, फारसी तथा अँगेजी के जन प्रचलित शब्दों का प्रयोग अत्यधिक हो रहा है किन्तु आलोचना की भाषा अब भी एक सीमा तक तत्सम शब्दों से लदी हुई है। हिन्दी को विज्ञान, वाणिज्य, विधि आदि की भाषा बनने के लिये पारिभाषिक शब्दोँ की बहुत आवश्यकता पड़ी है, इसकी पूर्ति मुख्यत: अँगेजी तथा सँस्कृत भाषा से की गई है। ज्योँ-ज्योँ सँचार माध्यमोँ का विकास होता जा रहा है हिन्दी शब्द-भाण्डार अनेक प्रभावों को ग्रहण करते हुए, नये शब्दोँ से समृद्ध होते हुए दिनोदिन अधिक व्यापक होता जा रहा है, जिसके परिणामस्वरूप हिन्दी अपनी अभिव्यँजना मेँ अधिक सटीक, निश्चित, गहरी तथा समर्थ होती जा रही है।

Rajul mehrotraroundcorner.pngहिन्दी काव्य का इतिहास नामक लेखों की इस शृंखला के लेखक राजुल मेहरोत्रा हैं। उन्होनें यह शृंखला कविता कोश के लिए विशेष-रूप से तैयार की है।
© राजुल मेहरोत्रा
सम्पर्क सूत्र: kavitakosh@gmail.com