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सौन्दर्य लहरी / पृष्ठ - ४ / आदि शंकराचार्य

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चतुःषष्ट्या तन्त्रैः सकलमतिसन्धाय भुवनं
स्थितः तत्तत्सिद्धि प्रसव परतन्त्रैः पशुपतिः ।
पुनस्त्वन्निर्बन्धादखिल पुरुषार्थैक घटना-
स्वतन्त्रंते तंत्रं क्षितितल मवातीतरदिदम् ॥३१॥

शिवः शक्तिः कामः क्षिति रथ रविः शीतकिरण
स्मरो हंसः शक्र स्तदनु च परा मार हरयः ॥
अमी हृल्लेखा भिस्तिसृभिरवसानेषु घटिता ।
भजन्ते वर्णास्ते तव जननि नामावयवताम् ॥३२॥

स्मरं योनिं लक्ष्मीं त्रितयमिदमादौ तव मनो-
र्निधायैके नित्ये निरवधि महा भोग रसिकाः ॥
भजन्ति त्वां चिन्तामणि गुण निबद्धा क्षवलयाः ।
शिवाऽग्नौ जुह्वन्तः सुरभिघृतधाराऽऽहुतिशतैः॥३३॥
                            
शरीरं त्वं शंभोः शशिमिहिरवक्षोरुह युगम् ।
तवात्मानं मन्ये भगवतिनवात्मान मनघं ॥
अतः शेषः शेषीत्ययमुभय साधारणतया ।
स्थितः संबन्धोवां समरस परानन्दपरयोः ॥३४॥
                            
मनस्त्वं व्योमत्वं मरुदसि मरुत्सारथिरसि ।
त्वमापस्त्वं भूमिस्त्वयि परिणतायां न हि परम् ॥
त्वमेव स्वात्मानं परिणमयितुं विश्ववपुषा ।
चिदानन्दाकारं शिवयुवति भावेन बिभृषे ॥३५॥