ईस्पात का स्वाद / संजय शेफर्ड
हम सब जब अपने समय के
सबसे संघर्षशील मनुष्यता के पड़ाव पर थे
खून को पसीने की तरह बहाना जानते थे
मेहनतकश होने का दंभ नहीं था
उस वक्त में हम मजदूर कहलाते थे
अब उस समय से हम बाहर निकल चुके हैं
उस ठहरे हुए पड़ाव से भी आगे
हमारे हाथों पर पड़े गठ्ठे मिट चुके हैं
संघर्षशीलता से तौबा कर लिया हैं हमने
और अब हम मजदूर भी नहीं रहे
वह खून-पसीने भी नहीं रहे
जिसके हिस्से में इस्पात के नुकीले
धारदार हथियार हुआ करते थे
और हम सब अपने- अपने दांतों से
अपने- अपने हिस्से की मिट्टी
काटते हुए बड़े हो रहे थे
हमारी गुजर चुकी पीढ़ी की तरह
अब गांव में भी बच्चे मिट्टी नहीं काटते
और न ही मिट्टी खाते हैं
पर लोहे का स्वाद वह जानते हैं
और बात-बात पर लहराने लगते हैं हथियार
हसिए-गड़ासे और तलवार में
कल तक फर्क समझ आता था
बंदूक-गोली-बारूद ने हमारी समझ को ही
नपुंसक बना दिया
हम कामगार दुबारा मजूर बन गये
और अपनी संघर्षशीलता और मनुष्यता को भूल
करने लगे इन्हीं बंदूकों-गोली-बारूदों की खेती।