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नटखट नागर / कृष्णावतरण / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’

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एहिना खेल-धूपमे, गप-सपमे लीलामय चित्र-विचित्र
करइत रहथि व्यक्त, अनुरक्त जनक हित स्वतः पवित्र चरित्र
जनिक चरण गहि शरण भक्त-गण सहजहिँ हो भवसागर पार
केवट बनि खेवट किछु असुलथि झंझ-मंझ कत करथि उदार
दही-दूध माखन-मटुकी धय माथ चलथि बेचय व्रज-बाल
तनिका नाव चढ़ाय पार कय खेवा चाहथि खेवनिहार
कने-मने नहि, विश्वंभर भरि उदर गव्य चाहथि नव-नव्य
नवनीतक छनि चाट पड़ल जे पुरुष पुरातन भावुक-भव्य
मुगुधलि धनि-जनि दामोदरकेँ बिनु दामहि भरि पोष्ज्ञ खोआय
फिरथि, मायकेँ कहथि नाव डोलल छल, खसल धार बोहिआय
झनझनाहि क्यौ झनकि उठय, कय रिक्त पात्र दधि-दूध सठाय
यमुना-जल अंजलि भरि देथि कहथि, छह भरले, देखह जाय
ओहिना फेनिल गाढ़ बकैन दूध नहि पानिक असरि-कसरि
आँखि देखतिहुँ जादूगर ई कयलनि किछु टोना अगुसरि
कखनहु नाव डालाय डेराबथि डगमग बीच धार व्रजवाल
अबला व्रजवाला विह्वल भय गहय बाहु मोहनक बेहाल
मन भरि गो-रस यदि च जुमयबह तखनहि प्राण सभक समधानि
विपदहु हँसि पड़लीह व्यंग्य बुझि रंगमयी रसमयी सयानि
नटखट नव नागर किशोरकेर नव-नव लीला-कौतुक देखि
नव नागरि रस-गागरि मुगुधलि मन-मोहनकेर रूप परेखि