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कंसक अंत-योजना / कृष्णावतरण / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’

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सचिवगणक मत सुनल, गुनल मन कंस कैल किछु कुटिल उघाय
धनुष-यज्ञ रचि राम-कृष्णकेँ नोतब, ब्योंतब वधक उपाय
अबितहिँ हुनक उपर मातल मुबलयापीड गजकेँ उकसाय
छोड़ब, जहिसँ कुचलि दुहूकेँ अंत करत अत्यन्त रुषाय
यदि ताहूसँ बचि कदाच जायत तँ मल्ल मुष्टि-चाणूर
कुश्ती लड़ि दुहूकेँ सहजहिँ मरदि-मरदि कर चकना-चूर
ताहू पर जत योद्धा हमर समर हित रहत शस्त्र-सन्नद्ध
उत्पाती दुहु व्रजक बालकेर काल बनत सहजहि प्रतिबद्ध
एहि हेतु अक्रूर जाथु व्रज, छथि सहजहि जे सभक चिन्हार
बुझा-सुझा कय नन्दहुकेँ हकारि आनथु सङ युगल कुमार
कंसक सुनि आदेश प्रथम अक्रूर झूर मन कंपित-काय
पुनि सोचल अरिबद्धल कंस अपन वध हित ई रचल उपाय
गर्ग-वचन अछि, व्यास कथन अछि, नभवाणी पुनि भेल विशेष
कंसक-ध्वंस कर’क हित व्रजमे अवतरला हरि मनुजक वेश
दर्शन करब, कलुष कटि जायत, हटि जायत असुरक भय-ताप
भेटल अछि संयोग, योग बिनु प्रभुपद, दर्शन करब अपाप
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मधुपुरमे विष घोरा रहल अछि भय वीभत्स रौद्र रस भाव
कंस ध्वंस हित बौरायल अछि, छली बली कपटीक प्रभाव
ओम्हर सरस वृन्दावन बिच रस-रास गीत-धुनि लय मधुमय
श्रेय-प्रेयसँ परे आत्म-रति परा प्रीति गोपीक प्रणय