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‘आषाढ़स्य प्रथम दिवसे’ / प्रतिपदा / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’

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ई रामगिरिक नहि दिव्य देश नव कुटज-कुसुम-विकसित प्रदेश
ने प्रिया स्मरणसँ विगलित - मन अभिशापित पुरुषक अभिनिवेश
ओ स्नान - पुण्य इतिहास देखि धैरज धय सकइछ जग परेखि
दुख-सुख चक्र क गति सह्य मानि आश्वासन दय सकइछ विशेष
गुनि सगुन, सुदिन यात्रा विचारि सन्देश -वचन दूतेँ प्रचारि
भूगोलक नकसा रेखि-लेखि पथ देखा सकै छथि रुचि बिचारि
दिङ्नाग-निचुल केर उक्तिक छवि स्ववचन रचनेँ निष्प्रभ कय कवि
रुकि-रुकि गिरि कानन सुन्दरतासँ सजइत अपन कलाक सुछवि
करइत रेवा-रेखाक पार, सुनि शिप्रा-वातक चाटुकार
आवेशी रन-रसनामे कय ककरहु वियोगसँ चमत्कार
पथ वक्रहु उज्जयिनीक लोभ छोड़इत हुनि होइछ मनःक्षोभ
लोचन-लाभक फल लैत चलथि प्रेयसी प्रबोधय क्षीण - शोभ
दुर्बल शरीर, कर वलय रिक्त, छथि तरुण यदपि अभिशाप-तिक्त
कवि! चलु अलकाक क्षितिज पट-पर रेखा अकित जत अश्रु-सिक्त
अलकाक सखी छथि द्वार ठाढ़ि, बिनु पाचस डूबलि नोर बाढ़ि
से आषाढ़क नव मेघ देखि टप-टप गलइत छथि कोँढ़ काढ़ि
एते दिन बसुधा संग-संग उत्ताप सहथि दुहु अंग-अंग
हुनि, जेठ हेठ होइतहिँ आगत घनश्याम दर्शने विरह भंग
एकाकिनीक ई व्यथा-भार, अछि आइ असह प्रथमहि अषाढ़।।1।।
वसुधाक तापसँ द्रवित गगन, राधा - विरहेँ हरि सजल-नयन
सरिताक क्षीणतेँ उमड़ल घन सीता-अन्वेषी रघुनन्दन
नहि हमर प्रियक की प्रेम सघन, अलकाक परी सोचय छन-छन।।2।।
केतकी कण्टकित नव पराग, जूही-कलिका सुनि अलिक राग
विकसित, पुलकित वन-वन कदम्ब पल्लवित प्रेम-अंकुर सराग
उजड़ल अछि हमरे एक बाग, की अलका-युवति क सुप्त भाग।।3।।
वर्षा सुन्दरि घन चिकुर कलित, घर-घर तरुणी-मुख अलक-ललित
निधि मिलन हेतु उद्ग्रीव नदी नख-शिख धरि वेगी उन्मोचित
अछि हमर बद्ध बेणी वंचित, अलकाक विरहिणी छथि चिन्तित।।4।।
भरि गेल वकुल-गन्धेँ दिग् वन, केतकी परागेँ अन्ध पवन
केकीक नृत्य घर-घर होइछ घनश्यामक दर्शन सभक नयन
हमरहि-आङनमे ज्वलित ज्वाल, अछि दग्ध भेलि अलकाक बाल।।5।।
घन संग दामिनी पीत-वसन, निधि संगिनी क आङन अरिपन
पट पहिरि हरित युवती लतिका लय रहल तरुक भुज-आलिंगन
अछि विरह - धूसरित एक-वसन, अलकाक अंगना मलिन - बदन।।6।।
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नहि देखि सकलि उमड़ल नभ-घन, सहसा चुप बैसलि शून्य भवन
आषाढ़ क रिम-झिम नोर-जोर चौंकलि लखि मुखपर अलक सघन
जे हत-चेतन पावस-वेधित, सन्देश कोना बूझय प्रेषित?।।7।।
आषाढ़क प्रथम दिवसहिक ई, अछि ज्वाला, दग्ध भय रहल ई
ओ मेघ दूत की आबि करत आषाढ़क प्रथम दिवसमे की
अछि उर जागल अलकाक व्यथा, कवि! रामगिरिक की सुनब कथा?।।8।।