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घन: तमाल / पयस्विनी / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’

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कानन वन बिच तरु तमाल हे! चतरि सघन वन सहृदय
तबधल जे मन प्राण जगत केर जुड़ा जाउ छाहरि कय
तपन तापसँ उजड़ि उपटि कत विपट शरणकेर अर्थी
आकुल कण्ठ गोहारि रहल, हे सुजन, स्वजन अन्वर्थी
उमड़ि आउ, घन धुनि सुनाउ पुनि घहड़ि घुमड़ि घन-घोर।
आश्वासक आशा -- विश्वास जगाउ, सहेजि सङोर।।1।।
कत दिन ग्रीष्मक उष्मताक ई चलल अचल उत्पाते
पड़त प्रचण्ड किरण मार्तण्डक कते क्रूर आघाते
दुसह पसाही दावानलक करत कत वनक निपाते
बहइत रहत कि चिर-कालहु धरि दुर्वह दहन बसाते
अहह? असह दुख देखि वारि - दृग वारिद? बरसिअ वारि।

अब्द, निरब्द नभहु जुमि झमकिअ तमकि तडित तरुआरि।।2।।
बरिसओ बुन्द वाणा अविरत, डुबबओ दिग् - विदिग् अखण्ड
आखण्डलक धनुष टंकारेँ हो अखण्ड भू - खण्ड
चमकओ तडित - खड्ग दु्रत गतिएँ पीत रक्त उद्दण्ड
नील ढाल घन सघन घुमओ उद्वर्तित निज-भुज दण्ड
वज्री! वज्र खसाउ, आउ अरि - उर कम्पन - निष्णात।
करइत चिर कठोर उद्धत गिरि - शिखर उपर अभिघात।।3।।
उमड़ि घुमड़ि रस बरषि हरषि बसबिअ अहँ अवनी श्याम
पुनि निरन्न परतीकेँ धरती रचिअ भूरि घन धाम
सर - सरि रेखा मात्र, भरिअ रस - रंग प्रेम उद्दाम
मन - मयूरकेँ नचबिअ, सजबिअ वन कदम्ब - अभिराम
रिक्त - तिक्त ब्रज वन, कालिन्दी - कूल न तूल - कलाम।
आबि, आइ पुनि पुण्य श्याम घन! बनविअ ललित ललाम।।4।।
पुनि अम्बर वन मेघेँ मेदुर तनओ तमालक छाया
पुनि घर - आङन गृह - गोसाउनिक अनुगत गति तुअ पाया
समय सीरपर बर्षओ पुनि पर्यन्य, धान्य धन धन्या
पुनि मरु - सिकता कन - कन मालव उर्वर सस्य अनन्या
गगन वनक पुनि तरु तमाल तति रचि दल नवल वितान।
श्यामा अवनि, श्याम घन अनुखन मिलओ कलित कल्याण।5।।