(वचन: प्रतिवचन)
”कानन! आउ, अहँक आननपर चानन हम छिटका दी
मलिन वदन धो - पोछि, केश बिखरल बिथुरल, छटबा दी
वास - भूमि अछि ऊभड़ - खावड़, बेउड़ेब घर - आङन
निघिन - सनक अछि घर - परिसर, मन अछि तकरा चमका दी
कोस-कोस कुश कास बाँस पुनि कते अपरिचित तृण - तरु
लता - गुल्म, जनि’ नाम कोष धरि लिखल न, से कटवा दी
लगबा दी मङाय केसर गुलाब केओला कचनारो
कत बिध रूप - रंग रंजित धङवाय सागरक पारो
वन - विहंग उड़बाय, काबुली बुलबुल कागा-तूआ
बेर - बेढ़ हित छड़ - बलछड़; वेष्टनी शिष्ट अनतूआ
सड़कक तड़क - भड़क, ट्रक बस कत चलत सतत आङनमे
नगर सगर बसि, सरस करत नित कत कलकल काननमे
किछु छाँटब, आँटब, किछु काटब, प्रयोजनी जत काज
रन्धन - इन्धन व्यर्थ, अर्थ गृह - आयल सज्जा साज“
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”हम प्रकृतिक सन्तान, हमर भगवाने छथि निर्माता
हमर ममत्व भूमिकेँ, हम सन्तति ओ छथि भू माता
रूप विरूप कहओ क्यो, युग अनुरूप न मानओ, क्षति नहि
किन्तु स्वरूप हमर अविकृत युगसँ युग धरि, अनुकृत नहि
साल विशाल गुल्म भेषज फल - दल अनन्त भंडार
भरल - पुरल वांछित, न नियोजन - लांछित घर - परिवार
ज्ञान्त निरन्त हमर अन्तर, जत वैर न द्वेष न लेश
विबिधताक बीच एकताक नित भेटइछ जत सन्देश
तरु सन्ततिकेँ नहि कटाय ककरहु विशाल - उद्देश
प्रकृत जीवनक संजीवन हम, हमर अहम् वन देश।“